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आज है कागज़ी फूलों का जमाना


पुस्तक समीक्षा 
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कृति - फूलों की ग़ज़ल

ग़ज़लकार - माधुरी राऊलकर 
समीक्षक - इन्दिरा किसलय
प्रकाशक - प्रक्षेप प्रकाशन, नागपुर
मूल्य - 125/-रुपए
पृष्ठ संख्या - 75


पूर्वकाल में ग़ज़ल की तासीर ही ऐसी थी कि वह फूल, ख़्वाब खुशबू और हुस्नो इश्क के करीब रही।जब उसने आधुनिक काल में खुरदुरी जमीन पर  पाँव रखे तो पाया कि यहां तो कदम कदम पर काँटे हैं जो तलुओं में तो चुभते ही हैं, मन को भी लहूलुहान कर देते हैं।ऐसे में ग़ज़ल ने अपनी जिम्मेदारी को शिद्दत से महसूस किया और वह उसे हर्फ दर हर्फ ढालने लगी।सामाजिक सरोकारों से निकटता बनाई।कोई ऐसा मुद्दा उससे छूटा नहीं जिसने जिन्दगी के दर पर दस्तक न दी हो।उसने कहीं सूफियाना तेवर भी अपनाए।

फूलों की ग़ज़ल माधुरी का 20 वाँ ग़ज़ल संग्रह इस बात की गवाही देता है कि फूल केवल अपनी कमसिनी और महक के लिए ही नहीं जाने जाते वरन वे जिन्दगी के हर रंग की परख रखते हैं।उनके जरिए मानवीय संवेदना और परिवेश की विसंगतियों को बखूबी उकेरा जा सकता है।वे रंगों की इबारत ही नहीं लिखते उन्हें जिन्दगी का फलसफा बयां करने में भी महारत हासिल है।

यह संग्रह उनके पूर्ववर्ती ग़ज़लसंग्रहों से अलहदा है इस मायने में भी कि इसमें फूलों के साथ काँटों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है। इसमें 300 अशआर हैं फूलों के नाम। हर शेर स्वतंत्र है। प्रसंगवश उद्धृत किये जाने योग्य। उन्होंने फूलों के बहाने मौसम, शोहरत, दौलत, बाजार, आसमान और रिश्तों की अच्छी खबर ली है।

'फूलों के जैसे होती फूलों की ग़ज़ल
नाज़ुक  पत्तों पर सोती फूलों की ग़ज़ल
दुनिया में जैसी दिखती है इसकी फितरत
काँटों का भार ढोती फूलों की ग़ज़ल'।।

इन फूलदार ग़ज़लों का गहना है सरलता।कोई बिना किसी कवायद के इन ग़ज़लों का आनंद उठा सकता है।वे सहजता से मन तक राह बनाकर अपने कदमों के निशां छोड़ जाती है -

'चिरागों की तरह जला करो कभी
फूलों की तरह खिला करो कभी'।।
जिन्दगी को फूलों से सीख लेनी चाहिए ।वे बदलते मौसमों से शिकायत नहीं करते। वे उनके हर संकेत को स्वीकार कर लेते हैं। जीवन दर्शन समझाने को दो शेर ही काफी होंगे -
'अजनबी जैसा रहना सीख

जिन्दगी को सराय कहना सीख फूलों की खुशबू चाहता है तो काँटों की चुभन सहना सीख'।।
बदलते वक्त के साथ इन्सान की चाहतें भी बदलती हैं। हर ओर दिखावा और कृत्रिमता नज़र आती है।लोग कागज़ के फूलों से काम चलाने लगे हैं -
'ऐसा नहीं कि फूलों से मोहब्बत नहीं
और हमको उनकी जरूरत नहीं
आज है कागजी फूलों का जमाना
नये फूल खरीदने की चाहत नहीं'।।

पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा भी उनके शेरों में समाया है। वे स्वयं फूलों से बहुत प्यार करती हैं -
'कभी सुबह तो कभी शाम करें
कुछ पल फूलों के नाम करें
पौधों की हिफ़ाजत कर के
चलो कुछ अच्छा काम करें'।।
एक लाजवाब शेर मन को बाँध लेता है -
'चमन में कितने सारे फूल थे पर
किसी महकते गुलाब सी माँ ही थी'।।

बेहद महीन शेर इस बात की बानगी पेश करते हैं कि माधुरी ने फूलों को कितनी सूक्ष्म दृष्टि से देखा है -
'फूलों पर बैठी तितलियों को कुछ देर वैसे ही रहने दीजिए - कैसे होते ये नाज़ुक एहसास
जरा उनको भी अब कहने दीजिए'।।

माधुरी ने ग़ज़ल का हुनर फूलों से चुराया है। फूलों से जुड़ी हर पहेली हल कर दी है।उम्मीद के फूलों से महकता है दामन उनका।
कुछ शबनमी एहसास भी पाले हैं जो पंखुड़ी पंखुड़ी बिखर गये हैं।

हिन्दी ग़ज़लों ने ग़ज़ल विधा की लोकप्रियता में भरपूर इज़ाफा किया है। माधुरी, उर्दू फारसी के दुरूह शब्दों का प्रयोग नहीं करतीं। यह जवाब है उन लोगों के लिए जो उर्दू के भारी भरकम शब्दों के बिना ग़ज़ल को मुकम्मल मानते ही नहीं। उनके शेर हर किसी को अपने से लगते हैं। प्रक्षेप प्रकाशन का यह दीवान सहृदय पाठकों के अंतस में अपनत्व की गूँज उठाता रहेगा।।
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