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डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर एक व्यक्ति न होकर एक विचार है !


डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर का जीवन भारतीय जनता के न्याय व समानता के संघर्ष की अविस्मरणीय कहानी है। उनके जीवन से जुड़े कई पहलू हैं जैसे दलित कार्यकर्ता, धार्मिक सुधारक, कट्टरपंथी विद्वान, समाजशास्त्री और संविधान निर्माता। ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ उस समय के सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से कैसे निपटा, इसके बारे में भी सोचा। इन सभी पहलुओं पर नज़र रखना अध्ययन का विषय है। तब उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हमारा समाज एक संघ होना चाहिए। उनका विचार संपूर्ण समाज को बुद्धिमान बनाकर छोड़ने का था। उन्होंने संविधान में यही बात साकार की, “आप जो भी सोचते हैं, उसे दूसरों के साथ साझा करना चाहिए भले ही आप बुद्धिमान हों” रामदास ने जो संदेश दिया, उसे उन्होंने लागू किया और दूसरों से भी कहा, वे इस संदेश को नजर अंदाज करके ना चले।

अपना तथा दूसरों का ध्यान रखते हुए वे राष्ट्रीय निष्ठा को अन्य निष्ठाओं के अधीन मानते थे। यह भावना पैदा करना और पोषित करना महत्वपूर्ण है कि हम सभी भारतीय हैं। इस निष्ठा के आगे कोई भी निष्ठा मुकाबला नहीं कर सकती। उन्होंने अपनी राष्ट्रीय निष्ठा को संकीर्ण जातीय, धार्मिक या राजनीतिक तथा अन्य हितों के लिए नहीं छोड़ा। उनकी यह भावना आजादी के बाद के दौर में देखी गई जब वे सत्ता में कानून मंत्री थे, तब अनुसूचित जाति महासंघ का गठन किया, धर्मांतरण की घोषणा की और अपने जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण क्षणों में वफादार बने रहे। अत: वास्तविक अर्थों में उन्हें राष्ट्रीय नायक कहा जाना चाहिए। इसका कारण यह है की जैसा उन्होंने कहा, मैं पहले एक भारतीय हूं और अंत तक भारतीय हूं ! क्या ऐसे महान विद्वत्ता के बिना सचमुच यह देश विकसित हो पाता? इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

डॉ. अंबेडकर ने स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व के लोकतांत्रिक सिद्धांतों की वकालत करते हुए कई किताबें लिखीं, भाषण दिए और दलितों के प्रति अपनी भूमिका स्पष्ट की। उनकी प्रेरणा से न केवल स्कूल, प्री-स्कूल बल्कि उच्च शिक्षा देनेवाले महाविद्यालय भी शुरू किये गये। उन्होंने शिक्षा, समाज कल्याण, अर्थशास्त्र, राजनीति में अपने स्वतंत्र, तर्कसंगत विचार प्रस्तुत किये। यह भुलाया नहीं जा सकेगा कि उनकी स्थिर अर्थव्यवस्था के कारण ही भारतीय रिजर्व बैंक अस्तित्व में आया। जैसे-जैसे दलित समाज जागरूक हुआ, उन्हें ज्ञान के महत्व का एहसास हुआ। आज समाज में अनेक दलित बुद्धिजीवियों के रूप में पहचाने जाते हैं, इसके पीछे डॉ. बाबासाहब की प्रेरणा है। समाज ने उनके विषय के प्रति अपना सम्मान अनेक प्रकार से व्यक्त किया है। आज उनके नाम पर अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय संचालित हैं। इसे उनकी विद्वत्ता की स्वीकृति ही कहना होगा, जो सर्वव्यापी हो गयी है। अपने विषय में “डॉक्टरेट” की उपाधि प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या अनगिनत है। इसलिए उनकी विद्वता का प्रमाण ध्यान देने योग्य है।

डॉ. बाबासाहब ने बड़ोदा सरकार से छात्रवृत्ति प्राप्त करने के बाद एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया। उन्हें कॉलेज में शिक्षा, उचित मार्गदर्शन और सहायता भी भीमा महार होने के कारण नहीं मिली। फिर भी उसी स्थिति में भीमराव ने 1912 में एलफिंस्टन कॉलेज से बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। बड़ौदा के महाराजा के कर्ज से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने उनके यहां नौकरी के लिए आवेदन किया और उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ के यहां नौकरी मिल गयी। लेकिन जैसे ही उन्हें संदेश मिला कि उनके पिता बीमार हैं वे तुरंत मुम्बई चले गये। जब वह अपने पिता के लिए बर्फी खरीदने के लिए सूरत स्टेशन पर उतरे तो ट्रेन चल पड़ी, इसलिए उन्हें घर पहुंचने में देर हो गई। पिता की आँखें बच्चे को देखने के लिए उत्सुक थीं। जब उन्हें एहसास हुआ कि लड़का आ गया है तो उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। अपने प्यारे बेटे के शरीर पर प्यार से उनका हाथ घुमाया और उस महान व्यक्ति ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 

आगे की शिक्षा के लिए बड़ौदा के प्रगतिशील राजा सयाजीराव गायकवाड़ ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की और अमेरिका भेजा। भीमराव को पता था कि वह अमेरिका केवल शिक्षा के लिए आये हैं। उन्होंने एक तपस्वी की तरह पूजा की, वह प्रतिदिन अठारह घंटे पढ़ाई में बिताने लगे और 1915 में वे एम.ए. हो गए। धन इकट्ठा किया और 1920 में एक बार फिर अधुरी पढ़ाई पूरी करने लंदन चले गए। वहां वे सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक विभिन्न पुस्तकालयों में किताबें पढ़ते थे और रात 10 बजे के बाद दिन के उजाले तक अपनी पढ़ाई जारी रखते थे। 1923 में लंदन विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें “डॉक्टर ऑफ़ साइंस’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। उसके बाद उन्होंने विभिन्न विषयों पर दो-तीन थीसिस लिखे। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1924 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें “डॉक्टर ऑफ़ फिलॉसफी” की उपाधि से सम्मानित किया। 

सामाजिक समानता के लिए जब महाड तलैया में सभी को यानी अछूतों को पानी उपलब्ध नहीं कराया। तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निर्णय लिया क्योंकि जल का अर्थ जीवन था, और वह ही उनसे छीन लिया गया था। मार्च 1927 को सत्याग्रही तालाब के लिए रवाना हुए। पानी पाना मानवता का अधिकार और प्रकृति का उपहार था इसलिए डॉ. अम्बेडकर सबसे आगे थे। अछूत होने के नाते बम्बई के एक कॉलेज में जिन लोगों को पानी का कष्ट सहना पड़ा, जिन्हें बड़ौदा के एक होटल में पीटा गया वे वास्तव में सत्याग्रहियों के सेनापति करके जच रहे थे। सभी लोग झील के पास आये, सबसे पहले उन्हौने पानी का एक घूंट लिया और दूसरों को पीने दिया। उन्होंने नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश पाने के लिए भी लगातार पांच वर्षों तक संघर्ष किया। अंततः 1935 में कालाराम मंदिर अछूतों के लिए खोल दिया गया। और उसी समय उन्होंने येवले (नासिक) में बौद्ध धर्म स्वीकार करने की घोषणा की। कड़ी मेहनत के बाद तुरंत ही उन्होंने सिडेनहैम कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी हासिल की। उन्होंने उन्होंने मांग की कि वर्षों से जाति बहिष्कृत वर्ग के साथ जो अन्याय हुआ है उसका समाधान किया जाये। बहिष्कृतों की इस लड़ाई को लड़ते हुए उन्होंने एक रचनात्मक और व्यापक रुख अपनाया और अछूत समुदाय में चेतना पैदा करने की दृष्टि से आगे कदम बढ़ाने शुरू किए ताकि वे अपने लिए कुछ करने की इच्छा रखें।

हमारे देश भारत पर अंग्रेजों ने शासन किया। “चले जाओ” के नारे के साथ अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया और बाद में 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। तब भारत के लिए एक स्वतंत्र संविधान होना आवश्यक हो गया ताकि भारत के लोग एक विशिष्ट तरीके से स्वयं पर शासन कर सकें। इस उद्देश्य से भारतीय विद्वानों की एक संवैधानिक (विशेषज्ञ) समिति नियुक्त की गई। तब पं. जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी ने यह जिम्मेदारी बॅरि. बी. आर. अम्बेडकर को सौंपी और वह उन्हौने स्वीकृत की।

डॉ. बाबासाहेब ने अपने दृढ़ संकल्प और दृढ़ता के साथ, दिन-रात अपनी सारी बुद्धि लगाकर 2 वर्ष, 11 महीने और 17 दिन में संविधान लिख डाला। उन्हें न केवल दलित वर्ग के नेता के रूप में भारत द्वारा मान्यता दी गई, बल्कि उन्हें भारतीय स्वराज्य में प्रथम कानून मंत्री का पद भी दिया गया। कानून और घटना-विज्ञान का गहन अध्ययन उनके जीवन का एक अलग पहलू था। 1950 से संविधान देश में लागू हुआ। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि, डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान के कारण ही भारत को विश्व में प्रसिद्धि मिली। तभी से उन्हें भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में पहचान मिली। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जितनी जिम्मेदारी दुनिया में किसी भी व्यक्ति पर नहीं थी। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि, यदि वे जीवित होते तो दृढ़ निश्चयी होते, यदि इतने महान न्यायविद् का पिछला जीवन इतना बुरी तरह से गुजरा न होता तो वे और भी उन्हौने कोई भी लापरवाही बरती नही। फिर भी जाति-बहिष्कृतों का आंदोलन आसानी से वर्ग-संघर्ष का रूप ले सकता था, जिससे भारत की एकता टूट गई और धर्म के नाम पर देश को नष्ट कर दिया गया। ऐसी स्थिति उत्पन्न होती, परंतु ‘भारतीय’ उनका स्थायीभाव था। वह भारतीय समाज में बदलाव चाहते थे, लेकिन उनका मानना था कि सामाजिक जागरूकता ही इसका रास्ता है। इसीलिए उन्होंने अपनी राष्ट्रीय निष्ठा कभी नहीं छोड़ी। वे राष्ट्रीय एकता के विचार को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे।

एक प्रसिद्ध कहावत है कि “जो उगाया जाता वह बेचा नहीं जाता” यह सर्वविदित है कि हम अपने पास मौजूद किसी व्यक्ति के गुणों को नहीं पहचान सकते, दूसरा व्यक्ति उन्हें परख सकता है, इसीलिए 1 जून 1952 को अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें “डॉक्टर ऑफ लॉ’ की उपाधि से सम्मानित किया। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के वैचारिक दर्शन के साथ-साथ सामाजिक/राजनीतिक संघर्ष को विरासत में मिलने के कारण यह समूह स्वाभाविक रूप से सत्ता-विरोधी है, हिंदू धर्म की विधर्मी वंशावली का विरोध करता है। हालाँकि, उन्हें भारत देश से बहुत प्यार था, इसलिए हिंदू धर्म से अन्य धर्मों में जाने के बारे में सोचते समय भी उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के अनुसार एकमात्र धर्म जो धर्म की कसौटी पर खरा उतर सकता है, वह है बौद्ध धर्म। तब हमें जो धम्म प्राप्त हुआ है उसका अच्छी तरह से पालन करने के लिए हमें दृढ़ संकल्पित होना चाहिए, अन्यथा ऐसा न हो कि महारों ने उन्हें अपमानजनक स्थिति में पहुँचा दिया । इसलिए हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने साथ देश ही नहीं बल्कि विश्व को भी बचा सकते हैं, क्योंकि इस धर्म का ऋण वैश्विक स्तर पर बढ़ गया है। भारत के हालिया इतिहास में उनकी उपलब्धियां सर्वोच्च स्तर की और यादगार हैं और यह दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है, जिसका श्रेय उनकी गहन विद्वता को जाता है !

बाबासाहब एक महान चरित्रवान व्यक्ति, अर्थशास्त्री, सरकारी वैज्ञानिक, इतिहास के विद्वान, अभ्यासक, बुद्धिजीवी, कानून के पंडीत, स्मृतिविद्, कई भाषाओं में निपुणता के साथ प्रभावी वक्ता, शोधकर्ता और पुस्तक लेखक भी थे। महान साहस और साहस के सामाजिक मार्गदर्शक, भगवान बुद्ध के कार्यो का संदेश पूरे विश्व में फैलाने वाले, दीन-दुखियों के प्रेरणास्रोत, आशास्थान जैसे विश्वविख्यात इस महापुरुष को उनकी 134 वीं जयंती के अवसर पर नमन !

-  प्रविण बागडे
नागपुर, महाराष्ट्र 
भ्रमणध्वनी : 9923620919
ई-मेल : pravinbagde@gmail.com
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