निर्मल आनंद
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परीक्षा, परीक्षा,परीक्षा! उठते,बैठते,सोते जागते,बस पढाई, पढाई, और पढ़ाई।उपर से घर के लोगों की हिदायतें। यह पढा या नहीं, वह पढा?, इंपाॅर्टेड प्रश्न देखे या नही? रिवीजन किया या नही ? अलार्म रखा या नहीं? सच, सुबह सुबह ठंडी हवा के झोंके, मीठी नींद, और इस बीच अलार्म की कर्कश आवाज। लगता आलार्म बजने के पहले ही बंद कर दें,ताकि कोई आकर उठाने ना लगे । बस लगता कब ये परीक्षा खत्म हो और शुरू हो गर्मी की छुट्टीयां? ग्रीष्मकालीन अवकाश का इंतजार हमें ऐसे रहता जैसे भीषण गर्मी के पश्चात तपती सुर्य किरणों से धरती को वर्षा की ठंडी फुहारों का! और फिर योजनाएं बनती।
यद्यपि अपने समयानुसार हमारी योजनाओं का दायरा सीमित था ।मुहल्ले में किसी एक का घर, और घर में बैठकर खेलें जाने वाले गेम। भीषण गर्मी में किसी को भी बाहर जाकर खेलने की इजाजत नहीं मिलती ।दोपहर होते होते हम सब एक घर में इकट्ठे हो जाते ।किसी दिन कैरम बोर्ड पर जम जाते ।खेलते खेलते कभी कभी ऐसा झगडा होता कि पूरा कैरम बोर्ड ही उलट दिया जाता, ,गोलियां फेंक दी जाती।कभी झगडा क्वीन को लेकर होता।मैंने क्वीन पहले ली, तुमने बेईमानी की ,तो रुपये पैसों के गेम में पैसों को लेकर!तब बच्चे थे,पर अब लगता है झगडो की जड रानी और पैसे ही तो है!अस्तु।
हमारे मनोरंजन का दूसरा और एक गेम था लूडो ,सांपसीडी। सांप सीढी का सांप जब किसी को बार बार काटता और उपर से उसकी गोटी बार बार नीचे आ जाती तो वह खेल बंद करने के बहाने ही ढूंढने लगता ।इसके विपरीत जिसे बार बार सीढी मिलती वह जीत के उत्साह में हारने वालों को ऐसे चिढ़ता जैसे उसने सबकुछ ही जीत लिया हो।किंतु हार और जीत की खुशी,गम खेल खेलने तक ही रहता।फिर सब एक।लगता है जीवन के खेल में भी ऐसा हो तो कितना अच्छा? बडे होते होते क्यों खेल भावना खत्म हो जाती है,पता नही।।कितने अच्छे थे वे भोले भाले पल, वे निष्कपट बचपन के दिन।
कैरम व सांप सीढी के साथ साथ किसी दिन व्यापार की बारी आती। व्यापार का गेम खेलते समय सब की नज़रें बडे बडे शहरों दिल्ली, बंबई, कलकत्ता,बैंगलोर जैसी बडी बडी जगहों को अपने कब्जे में करने की होती । और सौभाग्य से किसी के हाथ यदि दो तीन बडी जगहें लग जाती तो वह तो अपने को सचमुच का बडा समझने लगता ,और गेम का बैंकर अपने को बडा बैंकर । कभी कभी बैंकर पैसों की हेराफेरी करता तो फिर झगडा होते देर ना लगती।किंतु खेल इतना मजेदार होता कि दोपहर से कब शाम हो जाती तब पता चलता जब घर से कोई बुलाने आता।
इन सब खेलों से भी ज्यादा आनंददायक होता ताश का खेल ,”बिगफुल“ ।जो धीरे धीरे फूल बनने की ओर बढ रहा होता,उसका चेहरा उतर जाता ,बिना कारण चिढ़ता, तो बाकी के खिलाड़ी उतनी हो मजा लेते ।कारण हमारा एक सामान्य नियम बन गया था, जो हारेगा उसे खिलाना होगा आइसक्रीम, ,बर्फ का गोला या फिर पानी पुरी ।इसीलिए खेलते खेलते सबके कान लगे रहते बर्फ के लाल हरे नारंगी पीले गोले बेचने वाले पर या लाल मटके की कुल्फी बेचने वालों की टन टन घंटी पर ।फिर बर्फ के गोलों की ठंडक, ठंडी ठंडी कुल्फी की मिठास, व पानी पुरी के चटपटे स्वाद में सब ऐसे डूब जाते कि थोडी देर पहले खेल खेल में हुए झगड़ों की याद ही नहीं रहती ,और गर्म हवा के झोंके, व तपती लू के थपेड़ों की याद ही नहीं रहती। तब न तो घरों में कूलर लगे होते न ए. सी.,किंतु वे गर्म हवा के झोंके भी ए,.सी.जैसी ठंडक पहुंचाते।
दोपहर के बाद आती छुट्टियों की संध्या।खेल के मैदान ।कंचे, गिल्ली डंडा,पिट्ठू खो खो जैसे देसी खेलों की बारी । मोहल्ले के सब लड़के, लड़कियां मिलते खूब खेलते शोर मचाते।न पैसे, न प्रैक्टिस, न कोचिंगकी आवश्यकता !फिर भी आनंद इतना ,मजा इतनी कि जिसका माप ही न किया जा सके ।साथ ही स्वच्छ हवा एवं व्यायाम का लाभ अलग ।कभी कभी छुट्टियों में घर आए मेहमानों के साथ सैर सपाटे घूमने फिरने ठंडे शर्बतों व मीठे आमों के स्वाद के आनंद का क्या शब्दों में वर्णन किया जा सकता है?
तब गर्मी की छुट्टियां में खेल कूद, सैर सपाटों मौज मस्ती के अलावा हम बच्चों की एक ज्ञानवर्धिनी योजना भी चलती थी ।यह योजना थी बाल वाचनालय की ,जिसका पूरा संचालन भी हम बच्चों के द्वारा किया जाता था ।यद्यपि अच्छी किताबों के चयन में बडों का मार्गदर्शन अवश्य मिलता था ,व कभी कभी अच्छी किताबें खरीदने के लिए कुछ पैसे भी ।इस बाल वाचनालय में सचित्र कहानियां,सिंहासन बत्तीसी, विक्रम वैताल जैसी कुछ तिलस्मी किताबें बाल मैग्जीन, जैसे चंदा मामा,चंपक आदि का भी समावेश होता था। इन सबसे हमारा मनोरंजन तो होता ही था किंतु सहज रूप से जो ज्ञान रंजन भी होता था वह कितना अमूल्य था ,इसका आभास तो बडे होने पर ही हुआ ।आज महापुरुषों की जीवनियां पढ़ने का बच्चों को शौक क्यों नहीं,यह प्रश्न बार मन में आता है।
अस्तु समय परिवर्तनशील है ।समय के साथ साथ परिस्थितियां बदलती हैं तो सबकुछ बदल जाता है।अब ग्रीष्मकालीन छुट्टियां बिताने के तौर तरीकों में काफी बदलाव आया है।विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों,वीडियो गेम, कैसेट, सी डी कंप्यूटर और मोबाइल जैसे साधनों ने बच्चों के ग्रीष्मकालीन अवकाश को घेर लिया है ।मोबाइल की तो बात न पूछें पालने में झूलने वाला बालक भी उसकी गिरफ्त से मुक्त नही।।इनसे बच्चों का समय तो कटता है ,कुछ सीख भी लेते हों पर वर्ष भर भारी भरकम बस्तों का बोझ, ट्यूशन, पढाई, परीक्षा प्रोजेक्ट, आदि की थकान के बाद ये सभी साधन बच्चों के स्वाभाविक विकास में कितने सहायक हैं यह विचारणीय प्रश्न है ।
इसके अतिरिक्त आज ग्रीष्मकालीन हाॅबी,कैंप,संस्कार शिविर, व्यक्तित्व विकास कार्यशाला,कोचिंग, इत्यादि कार्यशालाओं द्वारा बच्चों के ग्रीष्मकालीन अवकाश का अधिक सदुपयोग करने की जैसे होड सी लग गई है।इन सभी ग्रीष्मकालीन आयोजनों में विभिन्न सामाजिक ,शैक्षणिक संस्थाएं कलाकार ,डाक्टर ,विषेशज्ञ अपनी स्वैच्छिक सेवाएं भी देते है,।निश्चित रूप से ये बच्चों के चहुंमुखी विकास में सहायक भी होते हैं बच्चों का मनोरंजन भी होता है,किंतु वर्षभर भारी बोझ के साथ कक्षा में बैठकर पढाई ,परीक्षा ,टेस्ट आदि देते देते थके हुए बाल मनों को पुनः कक्षा में बैठकर अनुशाशन बद्ध होकर सिखाने ,पढाने की ये कार्यशालाएं शिविर आदि पहले के खेलों की तरह निर्मल आनंद प्रदान कर पाएंगे?जिनसे अत्यंत स्वाभाविक रूप से बच्चे जीवन का पाठ पढ़ जाते थे ?
सच बहुत, बहुत याद आते हैं बचपन के वे दिन वे खेलकूद, वह लड़ना झगड़ना, रूठना मनाना और उनसे भी निर्मल आनंद पाना।
- प्रभा मेहता,
नागपुर, महाराष्ट्र
94230,66820