दास्तान-ए- मुर्शिदाबाद
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ना हम देख पाए,
न तुमने उसे समझा
न हम समझ पाए,
लेकिन
खूब लड़े,
लड़कर मर मिटे,
आख़िर
न तुमने कुछ पाया
न हमने कुछ पाया।
सजाया था गुलशन
अरमानों के गुलाब से,
सिंचा सरज़मीं को
बरसों पसीने से।
एक ही पल में
ये क्या हो गया,
सोने की चिड़िया
क्यों कुचला गया?
अल्लाह आँसू बहा रहा,
ईश्वर सिसक रहा,
तकते रहे हम और तुम,
इंसानियत आज मरहूम॥
- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव'
नागपुर, महाराष्ट्र