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डॉ. श्रद्धा पराते रचित ‘प्रश्नसूक्त सनातन’ काव्य संग्रह लोकार्पित


नागपुर। वी .एन. आई .टी के फिजिक्स असेम्बली सभागार में डॉ. श्रद्धा पराते कृत मराठी काव्य संग्रह ‘प्रश्न सूक्त सनातन’ का विमोचन प्रख्यात मराठी साहित्यकार सर्वश्री रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ, डॉ. प्रभा गणोरकर बबन सराडकर, सुरेश आकोटकर, श्रीमती अरुणा सबाने के शुभ हस्ते संपन्न हुआ।
 सर्वप्रथम वाग्देवी की आराधना एवं अतिथियों के सत्कार के उपरान्त मंच संचालिका प्रसिद्ध नाट्यकर्मी एवं आकाशवाणी उद्घोषिका प्रभा देउस्कर ने कवयित्री की अर्द्धशतकीय सृजन यात्रा एवं सूफी उपनाम का आशय स्पष्ट किया।


तदनंतर श्रद्धाजी के पुत्र धर्मेश ने पटल पर प्रस्तावना रखी। उन्होंने कहा कि दिग्गज कवि कुसुमाग्रज का जन्म दिन,और श्रद्धाजी के स्मृति दिन पर उनकी किताब का लोकार्पण साथ ही मराठी भाषा दिवस एक ही तिथि पर होना दैवी संयोग है। श्रद्धाजी ने अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में शिरकत की। अमृता प्रीतम के साहित्य पर पीएच डी की। उनका सौंदर्य बोध उत्कट था।काव्य में अध्यात्म दर्शन प्रतिष्ठित था।श्रद्धाजी के पति मधुकर पराते उनके अनन्य सहयोगी थे।वे उनके इमरोज थे।

बबन सराडकर ने कहा धर्मेश ने माँ की विरासत को सहेजा।केवल नदी किनारे तीर्थ नहीं होते, धर्मेश ने माँ के चरणों में तीर्थ पाया। उन्होंने अभंग, ओवी और हिन्दी मराठी दोनों भाषाओं में कविताएं लिखीं।वे आकाशवाणी से सतत संलग्न रहीं। वस्तुतः उनका सारा काव्य आत्मान्वेषण की प्रक्रिया है।मूल्यों के विघटन के दौर में मनुष्यता की खोज जरूरी है। ‘संपूर्ण मनुष्यतेचे एक चित्र काढीण’। वे कहती रहीं-अनिकेत वेदनाओं का गोत्र कैसे कहा जाए।

सुरेश आकोटकर ने निवेदित किया कि रिसर्च के दौरान प्रख्यात कवि ग्रेस उनके गाइड थे पर उनकी सृजन प्रक्रिया पर ग्रेस का अंशमात्र भी प्रभाव नहीं था।उन्होंने पर्याप्त लंबी कविताओं का सृजन किया।वे अमरावती आने पर पहाड़ी के शीर्ष पर जाकर विराट क्षितिज देखने जाया करती थीं।उन्हें कालिमा का आकर्षण था।किताब के शीर्षक का आशय -कि प्रश्नों में ही उत्तर निहित होते हैं।दोनों की सत्ता सनातन है।

अरुणा सबाने नेस्मृतियों के पृष्ठ पलटते हुये बताया कि जनवाद के कॉलम में व्यक्तित्व रेखांकन के सिलसिले में उन्हें मिली थी। वे बेहद मूडी थीं।उन्होंने डॉ. आम्बेडकर पर कई गीत रचे।वे सोशियो सायकोलॉजी पर अक्सर बहस करती थीं। जिस दौर में मंचों पर स्त्रियां नगण्य थीं वे पर्याप्त मुखर थीं।

मुख्य अतिथि प्रभा गणोरकर ने  निरूपित किया कि उनका व्यक्तित्व अत्यन्त काम्प्लेक्स था।वे स्वयं के प्रति अत्यन्त प्रामाणिक थीं इसीलिए उनके सृजन में पारदर्शिता है।उनकी कविता में वाळवंट (रेगिस्तान) शब्द बार बार आता है। उनकी मान्यता थी कि संसार में प्रेम के अलावा भी बहुत कुछ है। प्राणों की व्याकुलता को सजीव करना है। वृक्ष न हो तो अपनी पलकों का आकाश ओढ़ लेना।उनकी कविता का व्यंग्यार्थ गहन गंभीर है।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुये रवीन्द्र रुक्मिणी ने श्रद्धाजी की तेजस्विता का जिक्र किया। वे अमृता को अपनी प्रतिकृति मानती थीं।कलासक्ति एवं विरक्ति के बीच की स्थिति उनकी कविताओं में व्यंजित हुई है।वे बुद्ध से सवाल कर सकती थीं ।वस्तुतः कविता व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा है। सच्चे लेखक का प्रमाण है। उल्लेखनीय है कि अविशा प्रकाशन का विशेष आभार मानने के साथ ही सदन ने पुस्तक के मुखपृष्ठ को साकार करने वाले प्रख्यात चित्रकार सी डी शिवनकर का विशेष उल्लेख हुआ।

इस गरिमामय अवसर पर सर्वश्री एस पी सिंह, अविनाश बागड़े, इन्दिरा किसलय, अमिता गहलोत, हेमलता मानवी, अनिल मालोकर उपस्थिति रहे।अन्य लोगों के अलावा प्रीति, गौतमी और रूही पराते आदि कार्यक्रम सफलतार्थ मेहनत ली। धर्मेश पराते ने उपस्थितों का आभार व्यक्त किया।
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