गोली, बोली और होली
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बनारस, उज्जेन जैसे बाबा के नगरों में कई लोग रोज गोली लेते हैं, लेकिन होली पर हर छोटे-बड़े शहरों में लोग गोली का सेवन करते हैं। भांग की गोली विविध आकार, प्रकारों में प्राप्त होती है। पुराने भक्तों का काम गोली से नहीं चलता उन्हें तो गोला या अन्टा जरूरी होता है। भोले बाबा की गोली या गोला का सबसे ज्यादा प्रभाव बोली पर पड़ता है; सोमरस वाले जहाँ गाली-गलौज पर उतर आते हैं वहीं गोली वाले पहले दार्शनिकों की तरह मूक मुद्रा में जाते हैं, फिर एकाएक वाचाल हो जाते हैं। यह माहौल के ऊपर निर्धारित रहता है कि वे क्या बोलेगें। बस एक बार बोली फूटी कि बिना पटरी से उतरे ब्रम्ह वाक्य निकलते रहते हैं । श्रोता सुने न सुने वे सुनाते रहते हैं। हाँ, कोई ऐसा प्रसंग न हो जिसमें हॅसी आ जाये वरना शब्दधारा की जगह हास्यधारा बहती रहेगी।
आजकल बोली को गोली बनाकर चलाने का चलन भी खूब प्रचलन में है। भगवान जाने यह वर्तमान टुच्ची राजनीति का प्रभाव है या होली का प्रभाव है लोग लोकसभा, विधानसभा, सार्वजनिक मंचों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिन्ट मीडिया और सोशल मीडिया तक पगलाये हुये हैं। बिना विचारे बोली की गोली दाग देते हैं। फिर कहते फिरते हैं मेरे वक्तव्य को तोड़ा मरोड़ा गया है, मैंने ऐसा नहीं कहा था, मेरा सन्दर्भ कुछ और था।
कुछ बुद्धिमान पुलिस थाने से बचने के लिये अपने शब्द वापिस लेता हूँ कहकर चल चुके तीर को वापिस तरकस में लाने का प्रयास करते हैं। कुछ सीधे सीधे माफी मांग लेते है और खुद कुछ दिन के लिये दागे हुये कारतूस बन जाते हैं। जाने कैसे फिर से रिजार्च हो जाते हैं और कुछ दिनों महीनों बाद फिर वैसे ही बोली की गोली का मिसफायर कर बैठते हैं। शायद कुछ लोग आठों प्रहर सातों दिन, बारह महीने होली के मूड में रहते है या बड़े राष्ट्राध्यक्षों की तरह चुपचाप विजया की गोली के सुरूर में रहते हैं या रंगीन द्रव उनसे यह उपद्रव करा देता है।
सुना है कुछ ब्लागर या यू टयूबर द्रव्य के चक्कर में बोलियों की गोलियों की अंधाधुंध फायरिंग करते हैं। ऐसे लोग इस शुभकार्य के लिये होली के मुहताज नहीं होते हैं उन्हें तो प्रायोजक से प्रयोजन रहता है। अनेक राजनैतिक दल ऐसे बोली वीरों को पालते हैं उन्हें प्रवता के पद से विभूषित करते हैं या कुछ और अदना या पद दे छुट्टा सांड की तरह छोड़ देते हैं।
जाओ हुडदंग मचाओ। फसोगे तो हम देख लेगें। उनके वक्तव्यों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है या फिर यह उनके निजी विचार हैं पार्टी के विचार नहीं। वास्तव में वे न तो उनके विचार होते हैं और न पार्टी के विचार क्योंकि अब विचार कर बोलता ही कौन है। वो तो जब हंगामा हो जाता है तब विचारते है कि विचार कर बोलना चाहिये था।
वैसे तो होली फागुन की पूर्णिमा को जलती है और दूसरे दिन खेली जाती है। लेकिन जैसे नेता को शाम
5 बजे आना होता है परन्तु कार्यक्रम स्थल पर सुबह से ही चहल-पहल शुरू हो जाती है, सुरक्षा दस्ता तनाव हो जाता है, बड़ा नेता है तो कुत्ते से मंच और परिसर सुंघवाया जाता है। वैसे ही होली - दिवाली भारतीय त्यौहारों के नेता है इनके आगमन के पहले से ही चहल पहल शुरू हो जाती है। होली का होलाष्टक तो अष्टमी से शुरू हो जाता है। लोग गोली और बोली के इन्तजाम में लग जाते हैं। कुछ भी करो, कुछ भी कहो फिर कह दो "बुरा न मानो होली है'। यह क्रम रंग पंचमी तक चलता है। समयावधि के हिसाब से होली सबसे लम्बा त्यौहार है। यानि कि वी. वी. आई. पी. त्यौहार है तो कुत्तों की एन्ट्री न्याय - व्यवस्था की दृष्टि से अनिवार्य है।
कवि लोग होली को वसन्त ऋतु से जोड़कर काव्यात्मक बोली चलाते हैं। इस ऋतु में आम के वृक्षों में बौर आते हैं लेकिन होली के प्रभाव से या गोली के प्रभाव से आम तो आम खास लोग भी बौराये फिरते हैं। गोली, बोली, होली का त्रिवेणी संगम महाकुम्भ की तरह काव्य गोष्ठियों, रसिकों की महफिलों और दैनिक अखबारों के होली परिशिष्टों में दर्शनीय रहता है। हमें गोली और बोली का संयमित प्रयोग करना है वरना, अन्य भारतीय परम्पराओं की तरह होली भी सरस्वती नदी की तरह अदृष्य हो जायेगी, लुप्त हो जायेगी रह जायेगी खाली नीरस रेत।
- डॉ. गोविन्द उपाध्याय
नवीन सुभेदार ले आऊट
नागपुर, महाराष्ट्र