यातना
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चा…….s.. s….. ची…..ओ..चाची..ई…..ई…. जोर से चाची को आवाज लगाते हुए पारू ने चाची के दरवाजे को जोरों से खटखटाया,और कहा चा…ची ..दरवाजा खोल ना जल्दी। जल्दी दरवाजा खो.. लो.. और दोनों हाथों से पेट पकड़कर वहीं दरवाजे के पास कराहते हुए नीचे बैठ गई।
तभी दनदनाते हुए चाची बाहर आई और चिल्ला पडी क्या है री..? क्यों हल्ला मचा रही है इतना..? जरा गम नहीं खा सकती? कितनी जोर से दरवाजा खटखटा रही थी ? पता नही दरवाजा टूटा फूटा है? अभी गिर जाता तो, सब खुल जाता न! चाची को अभी कहां, कुछ पता था कि वास्तव में सब खुल चुका है।खैर चाची की चिल्लाहट पर ध्यान न देते हुए पारो बोली.. ‘चाची पेट में बहुत दर्द है, अब बिल्कुल सहा नही जाता। पारो के पीडित चेहरे व कराहती आवाज को सुन चाची किसी तरह ठहर, रुक कहते हुए अंदर गई। दो मिनिट मे वापस आकर जर्जर दरवाजे को धीरे से सम्हाल कर अड़काया और पारो का हाथ खींचकर जोर से बोली.. चल.. अब, और उसे दरवाजे से बाहर घसीटने लगी।
देड़ दो हजार की बस्ती के गांव का दवाखाना कैसा? छोटे छोटे दो कच्चे कमरे,डाक्टर साहब के बैठने के लिए एक साधारण कुर्सी, टेबल। अंदर रोगियों की जांच के लिए एक बैंच, व कुछ आवश्यक सामान। पारू को डाक्टर के सामने खडाकर चाची बोली- ‘जरा देखो तो डाक्टर साहब इस छोटी के पेट में बहुत दर्द हो रहा है।’ और धक्का देकर उसे बैंच पर जाकर लिटा दिया। ग्यारह वर्ष की पारू की जांच कर डाक्टर साहब ने चाची को जो कुछ बताया उससे तो चाची के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई। आंखें फटी की फटी रह गई। क्या… अरे….ये कैसे. ‘नहीं डाक्टर साहब आप एक बार फिर..’ चाची को बीच में ही रोकते हुए उन्होने कहा, मैंने अच्छी तरह से पूरी जांच कर ली है, और दवा की पर्ची चाची के हाथ में थमा दी।
पारू का हाथ पकड़ चाची दवाखाने से बाहर निकली तो आकाश में घनघोर काले काले बादल छाए थे।अब बरसे ,कि तब बरसे।जोरों की गड़गड़ाहट हो रही थी।मेघ बरसे या नही,पर चाची की गालियो के काले काले मेघ चारू पर जरूर बरसने लगे “ कहां गई थी मरी, करमजली, कहां मुह काला कर आई? निर्लज्ज ,बेहाया….क्या करूं मै तेरा? मां तो मर गई और मढ़ गई हमारे मत्थे चुडैल। कित्ती बार कहा है, यहां वहां मत कूदा फांदा कर, पर नहीं कौन सुने? वो तालाब में घंटों मत नहाया कर।पर सुने तब ना।अब मर तू भी। जा मर अपनी मां के पास। वो तो गई…. और रख गई ये बला हमारे मत्थे। क्या करूं, कहां रक्खूं ,इस बला को?बोलते बोलते बड़बड़ाती चाची पारू का हाथ पकड़कर घसीटते हुए उसे उसके घर के आंगन तक छोड़ किवाड़ बंद कर लिए अपने, सदा के लिए।
पारू के घर को यदि घर कह सकते हैतो बस एक झोपडी ही थी, घर के नाम पर। जिसमें कुछ अति आवश्यक एल्यूमिनियम के बर्तन,कोने में ईंटों से बना एक चूल्हा,चूल्हे के पास जंगल से काट कर लाई गई कुछ लकड़िया, फटे पुराने कपडों की एक पोटली।ग्यारह वर्ष की पारू घर में अपने आठ वर्षीय छोटे भाई, व चार वर्षीय बहन के साथ रहती थी ।पिता थे तो,पर सारे दिन दूसरों के खेत मे मजदूरी का काम करते थे।मां एक वर्ष पहले ही टी.बी.की बिमारी से चल बसी थी।और केवल ग्यारह वर्ष की पारू को दो भाई बहन की मां बना गई। सिनेमा में एकदम बच्ची से बडी होती लड़की की तरह पारू भी एकदम बडी हो गई, जिम्मेदार हो गई।पारू अब दोनों भाई बहन की देखभाल करती।
चूल्हा जलाकर जैसे तैसे कच्चा पक्का खाना बनाती,उन्हें खिलाती और अपने बापू को खेत पर खाना पहुंचाने जाती।और यदा कदा अंदर से बचपन हांक लगाता तो छोटे भाई बहन के साथ वह रस्सी कूदने,चक्कर बिल्ला खेलने का खेल, कर खुश हो लेती।यहां वहां से जोड़कर छोटी छोटी रस्सी के टुकडो से बनाई रस्सी व पत्थर का एक टुकडा ही यदा कद पारू को बचपन का अह्सास करा देते।कुछ आनंद दे देते।बस यही उसके जीवन का क्रम था।
इसी क्रम में एक दिन खेतों के बीच की पगडंडियों पर उछलते कूदनते, झाडियों से खेलते कूदते जब वह बापू के लिए खाना लेकर जा रही थी,कि बीच में ही उसकी राह रोककर एक नवयुवक ने पूछा,
“ए लड़की अकेली कहां चली? यहां इस तरफ किधर चली? चल उस तरफ कहीं चलकर बैठते है। देख ये मेरे पास खाने का बहुत कुछ है,चल वहीं बैठकर खाते हैं।देख वहां और उधर झडियों की ओर इशारा कर उसने धीरे से उसका हाथ पकड़ना चाहा।जैसे ही उस युवक ने हाथ पकड़ने की कोशिश की कुछ दूर हटते हुए उसने कहा चल हट,मुझे अपने बापू के लिए खाना लेकर जाना है।देखता नहीं ,ये मेरे हाथ मे खाने का डब्बा? मेरे बापू भूखे होंगे।
किंतु उसके बोलों को अनसुना करते हुए वह उसके पास पहुंच गया व जबरजस्ती से उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए ,लगभग घसीटते हुए ले गया उस बच्ची को झाडियों के बीच सुनसान जगह में। पारू जोर जोर से चिल्लाने का प्रयत्न करती इसी बीच उसके मुंह पर हाथ रखकर उसे दबोचते हुए उसकी बोलती ही बंद कर दी।अपनी पूरी कोशिश कर पारू छूटने का प्रयत्न करती रही पर सब व्यर्थ ,उसका साहस हार गया,दुस्साहस बदनीयत जीत गई। एक नादान, अबोध नाबालिग बालिका का सबकुछ लुट गया कुछ मिनटों में। वह उसका सबकुछ लूटकर भाग गया ,और पारो एक जिंदा लाश!
बस फटी आंखो देखती पर जैसे कुछ दिखाई नही देता,सुनने की कोशिश करती पर कुछ सुनाई ही नही देता ।सोचने समझने की शक्ति तो बस बची ही नही,और न चलने की ।किसी तरह घसीटते हुए घर पहुची। जीवन का बोझ ढोती घर के काम निपटाते जी रही थी,सच यदि इसे जीना कह सकें। इसी तरह समय निकल रहा था ,तभी अचानक एक दिन पेट दर्द .. फिर चाची की गालियों की बरसात.. वह समझ ही नही पास रही थी कि उसने ऐसा क्या किया जो चाची निरंतर उसपर गालियो की बरसात करती जा रही है।
शाम को खेत से वापस आने पर नशे में चूर बापू से जब चाची ने बेटी की बर्बादी बयान की तो बापू ने और उपर से लातों घूसों की बरसात कर दी। मार से हरी नीली पारू को हाथ घसीटते हुए से बाहर कर दिया जैसे वह रद्दी का कोई सामान हो।।,और यह कहते हुए बापू अंदर चला गया, ‘जा अब वहीं मर जहां मुंह काला कर के आई।’ पर वह निरपराध जाती तो कहां जाती ? असली अपराधी तो उसे जीवन भर की यातना देकर भाग गया था और वह निरपराध सजा पा रही थी उस अपराध की जो उसने किया ही नहीं। पहले सजा पाई पिता से, परिवार से और अब पूरा समाज उसके पास एकत्रित होकर उसे तरह तरह से प्रताड़ित करने, घाव देने को तैयार था।
तभी भीड़ से एक आवाज आई, ‘जिसने यह हाल किया वही अब इसे रखे। इसके साथ शादी करे। पर कैसे? वह नाबालिग थी। नाबालिग से कैसे शादी?कानून क्या इसकी इजाजत देता है?तो दूसरी ओर से आवाज आई, तो गर्भपात करवा दो.., पर यह भी कैसे हो? नन्हीं सी जान!। मात्र ग्यारह वर्ष की बच्ची ! जान का खतरा। वह जाए तो जाए कहां?क्या करे? मां भी तो नहीं, जिससे मन की बात कह सके बस चुपचाप सबकी सुनना, समाज की बुरी नज़रों का सामना करना, तिरस्कार, ताने सहना, अपमान, उपारलंभ झेलना,कुल मिलाकर यही बचा था उसके लिए ।
और यदि न्याय चाहिए तो इन सब यातनाओं से भी अधिक गहरी यातनाओं भरी प्रक्रियाओं से गुजरना होगा ।अपने आप को साबित करने के लिए अनेकानेक बेतुके बेशर्मी से भरी प्रश्नों के उत्तर पुलिस को देना होगा, जो दुष्कर्म की पीडा से भी अधिक पीड़ादायक होंगे ।किंतु वहां एकत्रित भीड़ में से एक महिला ने उसे समझा-बुझा कर तैयार किया। पारू और करती भी क्या? उसके अपने ,सच में यदि उन्हें अपने कहा जा सके तो वे तो उसे कबका ही त्याग चुके थे। इसके अतिरिक्त अपनी खुद की बुद्धी व ज्ञान भी कहां था उसके पास?स्कूल के दरवाजे तक तो कभी पहुंच ही नही पाई।
अतः उसे करना वही था,जो कहा जा रहा था।पारो अब अपने ही गांव की एक दूर की रिश्तेदार की दया का पात्र बनी उसकी कोठरी मे कैद थी ,और उस नादान की कोख में कैद था एक ऐसा अभागा शिशु जिसका वैध पिता उसेअवैध बनाकर पलायन कर चुका था। और मां? मां उस अनचाही संतान का बोझ ढोने को मजबूर थी ।और सहती जा रही थी अनेकानेक यातनाएं।
कोमल बचपन मेंही मां का साया सिर से उठ जाने की यातना!,नन्हे कंधों पर घर गृहस्थी संभालने की यातना,अपने साथ हुए दुष्कर्म की भयानक यातना,निरपराध होते हुए भी पिता व परिवार वालों द्वारा प्रताड़ित कर त्यागने की यातना,समाज से मिले तिरस्कार, उपेक्षा,उपालंभ ,अपमान की यातना,और सबसे अधिक ऐसे बच्चे की मां बनने की यातना जो उसे हर पल,हर क्षण, अपने साथ हुई दरिंदगी की याद दिलाता रहे।सारांश में पल पल जीकर मरने की यातना।
इतनी यातनाएं सहते सहते, दुनिया की ठोकरें खाते खाते अब वह बडी हो गई थी यातनाओं, दुनिया से मिली ठोकरों ने उस अनपढ़ को अब बहुत पढा दिया था । वह चाहती थी क्यों न उस पिशाच को, और उसके जैसे उन सभी पिशाचों को भी ऐसी यातनाएं दी जाय ,जिन्होंने उसकी व उसके जैसी न जाने कितनी कच्ची कलियों की जिंदगी कुचल कर रख दी, उनके जीवन को नर्क बनाया। क्या केवल थोडा सा जुर्माना,कुछ वर्षों की जेल पर्याप्त सजा होगी? या यदि फांसी के फंदे पर लटकाया जाय तो वह भी पर्याप्त सजा होगी?
नही… नही… यह तो मुक्ती ही होगी, कुछ क्षणों में मुक्ती… जीवन की समस्त यातनाओं से।इतने बडे जघन्य अपराध से केवल कुछ क्षणों मे सहजता से मुक्ती! नही।क्यों न इन नराधमों को भी ऐसी सजा,ऐसी यातना मिले कि वे भी पल पल जीकर अपने द्वारा किए गये दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध के परिणाम को भोगे,महसूस करें ।क्यों वह और उसके जैसी बेगुनाह, मासूम बेटियां ही अकेले यातनाएं झेले?ताकि पारो जैसी अनेक मासूम बच्चियां भविष्य में ऐसी यातनाओं का शिकार ना हो।
- प्रभा मेहता
नागपुर, महाराष्ट्र
9423066820