हिंदी महिला समिति ने ‘पुस्तकें सिसक रही हैं, पर क्यों’? विषय पर परिचर्चा का किया आयोजन
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नागपुर। हिंदी महिला समिति की अध्यक्ष श्रीमती रति चौबे की अध्यक्षता में एक बहुत ही संवेदनशील और समसामयिक विषय पुस्तकें सिसक रही हैं। पर क्यों? पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस परिचर्चा में समिति की सदस्याओं ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और अपने विचार प्रकट किए।
- अध्यक्षा रति चौबे ने पुस्तकों के दुःख को कविता में ढाल कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि भले ही आज आगे आने की होड़ में लोग पुस्तकों को एक बाधा,एक बोझ समझते हैं, लेकिन ये किताबें प्रचार, प्रसार के साथ हमारी प्रगति की द्योतक हैं। इनकी नींव पर ही आज के युग की इमारत खड़ी है। आज भले ही इन पर धूल की परत जम गई हो, किंतु ये अटूट है और हमेशा अपनी चमक के साथ विद्यमान रहेगी।
- गीतू शर्मा ने किताबों के दर्द को बहुत करीब से महसूस किया है। मां सरस्वती का स्वरूप ये किताबें अपना अस्तित्व खो रही हैं। डिजिटल क्रांति के इस युग में नई पीढ़ी को इससे कोई सरोकार नहीं है। कुछ को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग पुस्तके खरीदकर पढ़ने की अपेक्षा इंटर नेट का सहारा लेते हैं।
- भगवतीपंत ने किताबों को ज्ञान विज्ञान का सागर बताया। उनका कहना है कि किताबें ही हमें वेद, धार्मिक ग्रंथों, तंत्र मंत्रों साथ ही जीवन के रहस्यों से परिचित करती हुई सत्य के मार्ग में चलने को प्रेरित करती है। गुगल से हमें आधा, अधूरा ज्ञान मिलता है सो हमें वापस पुस्तकों की दुनिया में लौटना चाहिए।
- निवेदिता पाटनी आपने सही फरमाया है। पहले ये पुस्तकें ही हमारे मनोरंजन का साधन थी। हम सब भी इसका बेसब्री से इंतजार करते थे। किंतु जमाने का चलन ऐसा की हम भी इस दौड़ में शामिल हो गए और टीवी, सेल फोन किताबों की रेस में आगे निकल गए।अब हमसब को चाहिए कि अपनी मनपसंद पुस्तकों को भी समय,समय पर प्यार, दुलार दे। उन्हें समय दें ताकि उनके साथ कमजोर पड़ रही दोस्ती, प्यार की डोर मजबूत होती रहे।
- अपराजिता राजोरिया ने अपने विचार रखते हुए कहा कि पुस्तकें ज्ञान और साधना का सार है, ये हमारी सच्ची सहेली है।आज टीवी,मोबाइल ने इन्हें बुक सेल्फ पर सिसकने को मजबूर कर दिया है।
- ममता विश्वकर्मा ने कहा कि कोरोना काल में जब सारा संसार घर पर सिमट गया था तब सबकुछ ऑनलाइन होने से हम को ऐसी आदत पड़ गई कि हम ने किताबों से दूरी बना ली।
- कविता परिहार ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि पुस्तकें हमारी अमूल्य धरोहर है और प्रगति का रास्ता इन्हीं से होकर गुजरता है। आधुनिकता की नींव ये किताबें ही हैं। मां सरस्वती के सच्चे उपासक इनकी गरिमा बनाए रखेंगे और इनकी छबि को धूमिल नहीं होने देंगे।
- मंजू पंत ने अपने विचार रखते हुए कहा कि डिजिटलीकरण की वजह से पुस्तकों को सिसकना पड़ रहा है क्योंकि बच्चे गुगल का बखूबी उपयोग कर रहे हैं क्योंकि सब कुछ सरलता से सुलभ हो जाता है।फिर पुस्तक की जहमत कौन उठाए।
इस परिचर्चा में सभी सखियों ने इस बात पर अपनी सहमति प्रगट की कि पुस्तकों से नई पीढ़ी जो दूर हो रही है और पुस्तकें सिसक रही है उसका एकमात्र कारण डिजिटलाइजेशन ही है। हमें नई पीढ़ी को यह समझाना पड़ेगा कि समय के साथ चलना अच्छी बात है। परन्तु पुस्तकों से मुंह न मोड़ें।क्योंकि पुस्तके ही हमें सही ज्ञान देती है जो कई बार गूगल बाबा भी नहीं दे पाते।
- रेखा पाण्डेय कहती हैं पहले मासिक पत्रिकायें, उपन्यास ये सभी या तो हम खरीद कर पढते थे या किसी लाइब्रेरी से रेगुलर लाना पढना और वापस लौटना, इसी तरह से नियमित पुस्तकें पढी जाती थी परंतु आज डिजिटल युग में यही सब हमें गुगल पर याने मोबाइल या कम्प्यूटर पर मिलता है । परंतु मुझे तो आज भी बिना पढे नींद नहीं आती है। मैं कुछ नहीं तो न्युज पेपर ही पढते पढते सोती हुं । आज साहित्य हर भाषा में गुगल पर मिल जाता है इसलिए पुस्तक कम खरीदी जाती है।इसलिए पुस्तकें सिसकती हुई महसूस हो रही है क्योंकि पुस्तकें अब हमें नेट पर भी मिल जाती हैं ।
- रश्मि मिश्रा के अनुसार पुस्तकें जो कभी हमारे जीवन का अभिन्न अंग हुआ करती थीं, आज वह बेचारी हो गईं हैं। इसका मुख्य कारण क्या है? वह यह कि आज के परिवेश में दूरसंचार का चलन हो गया है। पहले जब पुस्तकें चित्र रहित होती थीं तब उन्हें रोचक बनाने के लिए चित्रों का समावेश किया गया। किन्तु जब टेलीविजन पर चीजें प्रसारित होने लगीं तब बच्चे सिर्फ मनोरंजन के रूप में उन्हें देखते थे परन्तु जब से इन्टरनेट ने जीवन में कदम रखा पुस्तकों का महत्व बहुत ही कम समझकर उसपर से ध्यान हटा लिया है। एक समय जब हमें किसी शब्द का अर्थ नहीं मालूम होता था हम शब्दकोश अर्थात डिक्शनरी का उपयोग करते थे और एक शब्द के बहाने पाँच ऊपर के और पाँच नीचे के शब्द कंठस्थ करते थे। आज के आधुनिक युग में इन्टरनेट से देखकर अर्थ तो जान लेते हैं परन्तु पुस्तकों को अनदेखा कर उन्हें सिसकने के लिए छोड़ दिया जो अन्यायिक है।
- गार्गी कहती हैं ‘पुस्तकें सिसक रही हैं’ शीर्षक काफी हद तक सही है ,क्योंकि वो पीढ़ी अब धीरे धीरे उम्रदराज हो रही है ,जिसकी शिराओं में साहित्य प्रेम रक्त बनकर बहता था, क्योंकि डिजिटल युग है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से लोग उपन्यास, कहानियाँ , कविताएं या अन्य रचनाओं को पढ़ते हैं। वैसे भी नई पीढ़ी में साहित्य को लेकर वैराग्य का ही भाव है ,इसलिए उनसे ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वो पुस्तकें पढ़ेंगे।
- निशा चतुर्वेदी कहती हैं ऋषि-मुनियों के ज्ञान को, संस्कृति और विज्ञान को, लिपि बद्ध किया गया और लिखा गया। नाम दिया पुस्तक। ये पुस्तकें हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए बनायीं गईं। ज्ञान के पिपासु इन्हें नेत्रों से पी पी कर अपनी प्यास बुझाते। कहीं इन्हें दीमक न चाट जाये सुरक्षा करते। परन्तु जिस प्रकार आदि काल से परिवर्तन पर परिवर्तन होते आए हैं। उसी भांति आज इस इन्टरनेट के ज़माने में, बच्चों बड़ों ने इन्हें उपेक्षित कर दिया है। ये पुस्तकें बंद अलमारी से सिसकारियां भरती हुई बोल रहीं हैं। सभी बहनों का कहना है कि पुस्तकों का जमाना वापस आना चाहिए। अंततः सचिव रश्मि मिश्रा ने आभार प्रकट करते हुए परिचर्चा का समापन किया।