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निंदा सरस सुखम


मनुष्य के जीवन में विद्यार्थी जीवन का बहुत महत्व है। लोग अक्सर कहते भी हैं की मनुष्य आजीवन विद्यार्थी रहता है। यह बात लेकिन कोई नहीं कहता की वह आजीवन विद्यार्थी रहकर सीखता क्या है? इस प्रश्न का उत्तर निरुत्तर है। फिर भी इस वाक्य के मायाजाल में समाकर मैंने भी कुछ बनने के उद्देश्य से विद्यार्थी बनने की भरपूर कोशिश की। सफलता कुछ हद तक मिल भी गई। इस सफलता में  हिन्दी साहित्य की कक्षा आसानी से समझ आ जाने का प्रचंड बड़ा हाथ है। मैंने कबीर दास का लोहा उसी दिन मान लिया था जिस दिन उनका साहसी दोहा पढ़ा जिसमे वे कहते हैं कि निंदक नियरे राखिए। 

इस आदर्श को समझने के बाद मैं दुनियादारी की सतह से बहुत ऊंचा उठने की सोच से भर गई। इस अनुभूति में मिश्रण हो गया ‘वाक्य रसात्मक काव्यम’ का जिसके द्वारा रस के सरस हो जाने के नियम का बोध हुआ। दुस्साहस करते हुए मैं कहना चाहती हूँ कि निंदक तो नियरे ही राखिए साथ ही निंदा भी नियर ही रहने दीजिए। कबीर दास जी की बात का सम्मान करते हुए साहित्य के पुरोधाओं से मैं निवेदन करना चाहती हूँ कि कृपया अब निंदा को भी रस मान लिया जाए। दुनिया में दुनियादारी की इस मजबूत कड़ी को यूं तो किसी बाहरी बल की आवश्यकता नहीं। फिर भी अगर बल मिल रहा हो तो छल की क्या बिसात।

कहीं से भी यदि लगे की निंदा रस कैसे हो सकती है तो शुभस्य शीघ्रम निंदा करके देख लीजिए। आनंद का आनंद और जानकारी की जानकारी। इसी बात पर मेरे कुछ सुझाव प्रस्तावित है संभवतः जिन पर गौर करने के उपरांत बुद्धिजीवियों का मन भी कलप उठे निंदा का रसास्वादन करने के लिए। इतना तो साधारण असाहित्यिक भी जानता है की सरस का गठबंधन रस से हुआ है। इस वचन विविधा को देखते हुए कुछ सुझाव प्रस्तुत कर रही हूँ। बुद्धिजीवियों से अनुरोध है की अपनी बुद्धि को जीवित रखते हुए थोड़ा गौर करें।
इस कड़ी के सुझाव क्रमांक एक पर आतुरता से प्रतीक्षा करते हुए जो सुझाव खड़ा है वह विकासोन्मुखी है और इसी कारण उसका भरपूर कायाकल्प हुआ और वह खड़े खड़े एक सवाल बन गया है। 

सवाल यह है कि निंदा यदि रस नहीं है तो उसकी उत्पत्ति इतनी आनंददायी क्यों कर बनी बैठी है? सुझाव का विकास होना और सवाल बनना भले ही नजरंदाज कर दिया जाए लेकिन जरा सोचिए कि कोई तो कारण होगा जो दो लोग बैठे हो तो बजाय आपस के सुख दुख बांटने के वे बांटते है बातें। किसी तीसरे की बातें। मनुष्य तो है ही एक सामाजिक प्राणी। सामाजिक होने के नाते जब वह एक क्षण के लिए दूसरे किसी से मिलने का मन बनाता है तब उसका अपना ही मन करता है की वह घंटों बैठा रहे और उसकी अप्रशंशा करते ना थके जिसके संदर्भ में वह और कुछ नहीं कर सकता। 

कुछ नहीं कर सकता अर्थात ना तो बराबरी ही कर पाता है और ना ही समकक्ष पहुँच कर कुछ पल के लिए सुस्ता पाता है। ऐसी कमजोर कर देने वाली अवस्था में बल देती है निंदा। एक निंदा ही तो है जो मनुष्य की मानसिक भूडोलावस्था को संभालने का काम करती है। निंदा की सहायता से मानव वहाँ जाता है जहां पहुँचने का स्वप्न वह साकार नहीं कर पाता है। भला,लाभ के लिए और क्या चाहिए! इससे अधिक निर्मल आनंद और क्या हो सकता है। एक अकेली निंदा ही तो है जो बिना प्रयास के आपको बेहतर होने का एहसास कराती है। निंदा से समय की कसक भी नहीं रहती और ना ही निष्क्रियता का एहसास ही रह जाता है। इसलिए निंदा को सक्रियता की उपाधि दी जानी चाहिए।

अब चिंतकों को विचार कर लेना होगा की वे निंदा रस को नीरस ना कहे। यह तो उत्थान का प्रतीक है। परम उत्थान का मार्ग भी यही है। निंदा करता मनुष्य निवृत्ति के रस से सरोबार हो जाता है। निंदा में संभाव है। प्राप्त के सुख का एहसास कराने में वह संकोच नहीं करती। जब इतना आनंद निंद्य में निहित है तो क्योंकर वह नीरस रहे। विचारार्थ तो रखें।निंदा को उपेक्षा की नहीं अपेक्षा की दृष्टि से देखें। देखना यदि तय कर ही लिया हो तो क्यों ना सरस रूप देखा जाए!

जब पहल हो ही रही है तब निंदा को रस का दर्जा देने के प्रस्ताव का दूसरा अनुमोदन यह है की इसके रसास्वादन को हीन ग्रंथि ना माना जाए। यह तो सरकार का आर्थिक बोझ कम करके राजकोष को हरा भरा रखने की उत्तम उपाय योजना है। इससे सरकार का विविध धार्मिक स्नान,सैर आदि का आयोजन करवाने का कष्ट कम हो जाएगा। हालांकि कुछ सरकारियों के लिए यह अधिक फायदेमंद या योजनामंद नहीं है फिर भी यदि इसे ‘तुरंत दान महाकल्याण’ वाला चोला पहना दिया तो लोग  जिस निंदा भाव को संकोचवश व्यक्त नहीं करते उसे निसंकोच रूप से व्यक्त करेंगे। 

मृत व्यक्ति का तो पता नहीं लेकिन जीवित व्यक्ति के मोक्ष का द्वार तो निंदा मार्ग से ही समृद्ध होता नजर आ रहा है। यूं भी, यह तो कहा ही जाता है कि पुनर्विचार करने से संभावनाओं की जमीन मजबूत होती है। इसलिए निंदा को निंदनीय ना माना जाए और इसे रस की उपमा देने की भावना का अनुमोदन किया जाए। रस का रसीला अंदाज निंदा को और अधिक रोचक तथा ग्राह्य बनाएगा। संतो की वाणी में तो यूं भी कहा ही गया है की निंदक में साबुन और पानी के बिना तन मन निर्मल करने का सामर्थ्य होता है। इस आधार पर तो निंदा को रस की उपाधि देना पर्यावरण पूरक भी है। इस बिन्दु पर आकार निंदा को जलायमान मानना होगा।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अब निंदा को थोड़ा उदार होकर देखने की आवश्यकता है। यह एक सामाजिक उपक्रम है। सामाजिक सौहार्द्र की भावना को अधिक बलवती बनाने के लिए यह सहायक है। यही है वह जो कम से कम दो लोगो को एक कड़ी देती है जुडने की। यही वह सीरा है जिसे खींचकर लोग आपसी परायापन परे करते हैं और जुडते हैं। देखा गया है कि जब दो लोग मिलकर तीन पाँच करते है तो गम भी कम होता है और परायापन भी। यही वह प्रक्रिया है जिसमें जली कटी बाते भी रोचक लगने लगती है। बात तो है बहुमत के मनोरंजन की। जब देश को धक्का देने का आधार बहुमत हो सकता है तो क्यों न बहुमत के फोर्मूले को आधार बनाकर एक की निंदा में दो के सुख को भी बिना विलंब रस के साँचे में ढलने की अनुमति दे दी जाए।

पुनश्च,यदि, वैमनस्य और असंतुलन की समस्या को कम करना है तो तत्काल निंदा को अनिंद्य मानते हुए रस की शोभा से शोभित कर दिया जाए। बांछे खिलना, बल्लियों उछलना ,चेहरा खिल जाना आदि सब  निंदा के उपयोगी मुहावरे माने जा सकते हैं। यदि इतने प्रस्तावों पर अमल हो तो निंदा को रस का चोला पहनाकर प्रतिष्ठित किया जा सकता है तथा सामाजिक सौहाद्र के लिए ऐसे और सुझाव प्रस्ताव भी मंगाए जा सकते है। कृपया चार लोग विचार करें।  

- आभा सिंह
   नागपुर, महाराष्ट्
लेख 5941281630554982082
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