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मुफ़्त की रेवड़ी का वोटबैंक

                            


- मनोज पाण्डेय 

भारतीय राजनीति नहीं, देश का दुर्भाग्य है कि सामाजिक न्याय के नाम पर पहले आरक्षण, हालांकि अभी तक( देश की स्वाधीनता के ८० वर्षों बाद भी) न तो उससे बाबा साहब के समाजीकरण का सपना साकार हो पाया और न ही आरक्षण को हितग्राही सर्व -भारतीय वर्ग तक पहुंचाया जा सका है; और अब मुफ़्त की चुनावी रेवड़ियां इस तरह बांटी जा रही हैं और इसे खुल्लम - खुल्ला वोटबैंक को हथियाने का सबसे सुगम मार्ग बना लिया गया है कि हैरत होती है। आखिर राजनीति का धर्म क्या लोक कल्याण के नाम पर मुफ्तखोरी की आदत डलवाना ही है ? 

उल्लेखनीय है कि कोई भी राजनीतिक दल आज इससे परहेज नहीं कर रहा है। जो सत्ता में है वह भी, जो नहीं है वह भी ऐसे दावे कर रहा है मानो इस सौगात से देश आत्मनिर्भर बन जाएगा। कोई भी राजनीतिक पार्टी इस खेल में पीछे नहीं रहना चाहती। वोट की खातिर देश -प्रदेश को गिरवी रखने के लिए सभी आमादा हैं, बढ़ - चढ़ कर बोली लगाई जा रही है। सारा करिश्मा रेवड़ी से वोट हासिल करने पर केंद्रित हो गया है। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राजनीति भारतीय समाज की ऐसी सच्चाई बन गई है जो सर्वतंत्र स्वतंत्र है, उससे पूछने वाला कोई नहीं है। जो पूछ सकता है, उसका नियोक्ता स्वयं राजनीति ही है, ऐसे में कैसे अपेक्षा हो सकती है? दूसरा वह वर्ग है जिसे लोक कहते हैं जिसके वोट से लोकतंत्र बनता -चलता है, उसे रेवड़ियों का हिस्सेदार -हकदार बना कर उसके मुंह पर ताला जड़ दिया जा रहा है। जो स्वयं रेवड़ी का भोगी बन गया है, उससे कैसे कोई उम्मीद रखी जा सकती है? 

ऐसा नहीं है कि वोटबैंक के लिए रेवड़ी कल्चर अभी शुरू हुआ है। भारतीय राजनीति में यह पुरानी प्रथा है। दशकों तक जाति, धर्म,पंथ के नाम पर तुष्टीकरण की रेवड़ी वोटबैंक की ठोस गारंटी हुआ करती थी, आज उससे खून-खराबा भले कराया जा सके, सालिड वोट हासिल नहीं किया जा सकता, राजनीतिज्ञों ने इसे भली-भांति समझ लिया है। इसीलिए अब सीधे कैश के जरिए वोटबैंक को प्रभावित किया जा रहा है। और, चिंता की बात यह है कि इस पर कहीं कोई विराम लगने की उम्मीद नहीं दिख रही है। चुनावी मनोविज्ञान के बड़े - बड़े पंडितों का गणित इसीलिए फेल होता जा रहा है। 

ग़ौरतलब है कि मुफ़्तखोरी की बिसात पर जारी चुनावी चौपाल में न तो कोई पीछे हटना चाहता है और न ही कोई वंचित रहना चाहता है। पार्टियां दिल खोलकर रेवड़ियां बांटने का रिकार्ड बनाना चाहती हैं और हितग्राही अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने का। कहने को रेवड़ी बांटने - मिलने की नियमावली तय है, किंतु जब राजनीति की हमाम में सब नंगे हैं तो रेवड़ी हासिल करने की जमात में कोई पीछे क्यों रहे? नियमों को धता बताकर लोग रेवड़ी का भरपूर फायदा उठाने के लिए लालायित हैं। और मजे की बात यह है कि सबके अपने-अपने जायज़ तर्क हैं। कोई किसी को ग़लत बता ही नहीं सकता। 

बेशक गरीब का हक़ है और शासन का धर्म है कि उसका कल्याण हो, उसके लिए जो भी संभव हो, योजनाएं चलाई जाएं। किंतु, क्या सिर्फ गरीब के निवाले की व्यवस्था, वह भी राशन और नगद रुपए के रूप में करना ही लोक कल्याणकारी शासन का कर्म है? या उसे आत्मनिर्भर बनाना? इधर एक तरफ आत्मनिर्भर भारत का अभियान जोरों से चलाया जा रहा है दूसरी तरफ खुले दिल से रेवड़ियां बांटी जा रही हैं। सोचिए कौन आत्मनिर्भर बनने की दिशा में बढ़ रहा है, कौन रेवड़ियों पर निर्भर होता जा रहा है?

एक तथ्य यह भी विचारणीय है कि रेवड़ियां बांटने वाले इसकी व्यवस्था कहां से कर रहे हैं? क्या पार्टी फंड से घोषणा हो रही है? करोड़ों की रेवड़ी का अर्थमैटिक्स क्या है? आखिर देश को मुफ्तखोरी की लत क्यों लगाई जा रही है? क्या सत्ता की खातिर देश के खजाने को लुटाने का हक राजनीतिक दलों को है? ये प्रश्न इसलिए हैं क्योंकि इस देश में रेवड़ी कल्चर से गरीबी रेखा की सीमा दिनों-दिन दनादन बढ़ती जा रही है। एक नागरिक के बतौर हम कब सोचेंगे? सोचेंगे भी कि नहीं? या रेवड़ियों के भरोसे ही वोटबैंक हथिया कर देश का भविष्य लिखा जाता रहेगा!
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