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समाज में वृद्धों का स्थान


‘यह क्या विषय लेकर आए हो भाई’ संपादक महोदय ने अपने तकिया कलाम में क्रोध मिश्रित प्रेम मिलाकर नव लेखिका से पूछा। लेखिका थोड़ा सकपकाई। पहली बार किसी संपादक ने पढ़े बिना लेख लौटाया तो नहीं था लेकिन प्रश्नचिन्ह जरूर लगाया था। यही क्या कम बड़ा हर्ष है!
नवलेखिका ने सानंद कहा- सर, समाज में युवकों का स्थान चिंतन का विषय हो सकता है तो वृद्धों का स्थान क्यों नहीं?

वह तो अच्छा हुआ कि संपादक महोदय अपनी पीढ़ी के पुराने लोगो की तरह जानकार नहीं थे अन्यथा आज नवलेखिका को भूतपूर्व होते देर नहीं लगती। जिस तरह उसने ‘समाज में युवकों का स्थान’ निबंध के समकक्ष अपने लेख का शीर्षक रखा उससे तो वह घनघोर अपराध की भागी थी।  
संपादक ने केवल भौंहे भर तरेरी और कहा- बुजुर्गो को भला समाज में क्या स्थान चाहिए? तुम लेखन करना चाहती हो या सर्वे करने निकली हो!

नवलेखिका सचमुच में नई थी। तपाक से सवाल करती थी और झट से जवाब भी देती थी। वह तपाक से बोली-आपके अनुसार, मुझे क्या नहीं लिखना और क्या लिखना है वह बता दीजिए। ताकि कम से कम मेरा लिखा हुआ छपे। छपना जरूरी है,पाठक को पसंद आए ना आए।

संपादक महोदय लेखिका को समझाते हुए बोले कि,’देखो,क्योंकि तुम एक स्त्री हो इसलिए तुम्हारा अधिकार है कि पहले स्त्री की सतही समस्याओं को वर्णित करो।‘
नवलेखिका बीच ही मे टोककर बोली-आपका तात्पर्य कर्तव्य से है!

संपादक महोदय पहले से जानते थे कि रामराज्य के भ्रम का हश्र ऐसा ही होता है। लोग अधिकार में कर्तव्य की कडझी चला चलाकर स्वाद स्वाहा कर देते है। इस बार उन्होने स्नेह की मात्रा कम कर दी और बोले- देखो, अधिकार का उपयोग करना है तो कर्तव्य के बोझ से मुक्त होना आवश्यक है। कर्तव्य तरल होता है और अधिकार सघन। तुम सघन पर ध्यान केन्द्रित करो। पहले स्त्रियोचित समस्याओं को लिखो। बहुत गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं है। गहराई में जाने से डूबने का खतरा होता है। तुम बस विषय को स्पर्श करो और निकल लो। जिसे भी डूबना हो वह पढ़े और अपने हिसाब से डूबे।

संपादक की सलाह यहीं तक नहीं रही, वह गलियारे से निकल कर मुख्य मार्ग हो गई। कहने लगे- जब तुम स्त्री लेखन कर लो तब आओ समाज की परम्पराओं पर।
नवलेखिका फिर उतावली होकर कहने लगी- सर,राजनीति और नेताओं पर कब लिखूँ? इन सब में तो नेता हाथ से निकल जाएगा!

संपादक- [माथा पीटते हुए] उसकी जल्दबाज़ी क्या है! वह चुनाव के मौसम का विषय है। जब तक चुनाव की बयार ना चले तब तक राजनीति की पापड़ सुखाने की कोई आवश्यकता है ही नहीं।
नवलेखिका अपने सारे मुद्दों को बेरोजगार होता देख रुआंसी होकर बोली- सर भ्रष्टाचार पर बात होगी या वह भी बेमौसम बरसात बनकर रह जाएगा?

संपादक महोदय समझ गए की सच में लड़की को लगन की आवश्यकता है। पहले ही वह वृद्धों की सामाजिक अवहेलना को दिल से लगा बैठी है। संपादक महोदय अपने वर्षों के अनुभव से यह जानते थे कि जो विषय दिल को छूते हैं वह पाठक को नहीं छू पाते। वे अनुभवी दुनिया के बल पर लेखिका को भावनाओं की गली से निकाल लाए तो वह भ्रष्टाचार से बगावत करने लगी। संपादक महोदय चाहते थे कि जिन मुद्दों के मायने ही ना हो उन्हें महत्व भी ना दिया जाए। वे उसे समझाना चाहते थे।

नवलेखिका जान रही थी कि उसके लेखन में बुजुर्गो के लिए स्थान भले ही हो लेकिन समाज में नहीं है। वर्तमान में बुजुर्ग [उम्रदराज] केवल राजनीति में अप्लीकेबल है और कहीं नहीं। संपादक के अनुभव को फिर भी टटोलते हुए वह बोली- सर आपके अनुसार वृद्धों का समाज में क्या स्थान होना चाहिए?

संपादक, लेखिका की मांग समझ रहे थे लेकिन वे जानबूझकर मांग के आगे सरकार बनने को मजबूर थे। जानते थे कि सुनकर भी होगा क्या! कुछ नहीं। एक दो लेख की दो चार ‘हार्दिक बधाई’नुमा टिप्पणी आएगी और फिर वही होगा जो होता आ रहा है। कुछ नहीं। यहाँ समस्या भारतीय मन की थी जो सलाह मांगते ही गुरुता के गुमान में आए बिना नहीं रहता। नव लेखिका को समझाना इन्होने अपनी ज़िम्मेदारी मान ली।
संपादक बोले- देखो,दो तरह के भ्रम इस दुनिया में होते हैं एक सही और दूसरा गलत।

लेखिका (मतदान से वंचित नागरिक के हाव भाव से) बोली- यह भ्रम है! मैं तो सुनती आ रही हूँ की यही वास्तविकता है।
संपादक- भ्रम को वास्तविकता समझने का ही तो यह भ्रम है। सही हमेशा होता है लेकिन उसे स्वीकार तब किया जाता है जब वह दिखाई देने लगता है और गलत तरीके से दिखाई देता है इसलिए सही मान लिया जाता है। इसे ही भ्रम की स्थिति कहते है। सही और गलत के होने ना होने का भ्रम। रही बात वृद्ध प्रजाति की तो वे सत्य की तरह है जो होते तो है लेकिन दिखाई नहीं देते। उन्हें प्रमाणित करना पड़ता है अपना सामर्थ्य और कमजोर होती शक्ति। 

तुम्हें जो स्थान वृद्धों को समाज में दिलवाना है वह थोड़ा मुश्किल है क्योंकि उन्हें पके हुए फल [सभ्यतावश संपादक ने पिलपिले शब्द का प्रयोग नहीं किया] मान लिया गया है जो ना दुकानदार[समाज] को चाहिए और ना ही ग्राहक [परिवार] को। ये आत्मनिर्भर हो तो आस-पड़ोस कि आँखों में किरकिराते हैं और कमजोर हो तो परिवार को रास नहीं आते। घर और बाहर की दुनिया जो आईना दिखा देती है उसके बाद कुछ और देखने का साहस किसके पास रहता है? तो तुम समाज में वृद्धों का स्थान देखने से पहले यह देखो की तुम्हारे आईने में वृद्धों का क्या स्थान है?

नवलेखिका ,संपादक के दिए गीता ज्ञान से अर्जुन हुई जा रही थी लेकिन मन अब भी स्वजनों की पीड़ा शैय्या पर कसमसा रहा था। वह, यह जानकर परेशान हो गई कि जिस उम्र को अनुभव का पर्यायवाची माना जाता है उसके पास अपना कोई विकल्प नहीं है। वह मार्गदर्शक मंडल का ऐसा प्रतिष्ठित नागरिक है जिसकी प्रतिष्ठा ही दांव पर लगी रहती है। समाज तो समाज ,व्यवस्था भी इनके अनुकूल नहीं होती। ये चल भले ही सकते हो लेकिन चला नहीं सकते। यातायात विभाग इन्हें योग्य नहीं समझता। 

वाहन चलाने के लिए ये अयोग्य पात्र करार दिए जाते हैं। उम्र के तीस-पैंतीस साल जिस जगह काम करते हैं वहाँ से मिलने वाली पेंशन को को वे जिस पीड़ा से ग्रहण करते है उसे हूबहू वही साँस समझ सकती है जिसने सपने से सजाए मकान की चाभी बहू को सौंप दी हो। संपादक सर का यह कहना भी गलत तो था नहीं कि समाज में वृद्धों की स्थिति वही है जो राजनीति में महिला आरक्षण की है। बीमा कंपनी वाले उन्हें लाभ देते नहीं और उनकी कंपनी [साथ] कोई लेता नहीं। अपने ही पैसों की किश्ते लेना उन्हें साहूकार के पाप का भागी बना देती है। नवलेखिका दुखी हुई। मुखरता और बढ़ गई। लेखक अगर दुख में भी मुखर ना हो तो वह भला लेखक कैसा!

नवलेखिका पके बालों की परिपक्वता लिए कातर स्वर में बोली- सर, क्या हम कुछ नहीं कर सकते?
संपादक- बिलकुल कर सकते हैं। नजरंदाज करो। वैसे भी समाज की रुचि ज़िम्मेदारी के बजाय जिम्मेदार में ज्यादा होती है। तुम कितना ही ज़िम्मेदारी का राग गुनगुनाओं वे जिम्मेदार का ही ढ़ोल बजाएँगे। समाज की सरगम का सुर जिम्मेदार पसंद होता है इसलिए इस बात को मान लो की समाज में वृद्धों का कोई स्थान नहीं है।

नवलेखिका इस नवचेतना के प्रवाह में बह गई। संपादक महोदय ने उसे नई कलम और कागज़ पकड़ा दिया। अगले दिन समाचार पत्र में लेखिका के नाम से लेख छपा, शीर्षक था- औरत तेरी यही कहानी।


- आभा सिंह
   नागपुर, महाराष्ट्र

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