चली पुरवाई, आया बसंत
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कर रहा प्रकृति का नवल श्रृंगार,
महक उठी फूलों की फुलवारी,
अमराई से सजी यूं अमुआ की डारी,
उस पर गूंजे कोयल की कूक निराली,
महुआ ने कुछ ऐसे बगिया महकाई,
झूम उठी सरसों भी जो चली पुरवाई,
खुला गगन, खिली धरा, दिन बहुराए,
नभ-थल चहुंओर पंछी मधुर गीत सुनाए,
श्रृंगार रत प्रकृति सृजन का उत्सव मनाए,
झड़े शाख से सूखे पत्ते, फूटी नईं कोपले,
खिल गई कलियां , भवरे गुंजन कर डोलें,
खिली धूप गुनगुनी, जाड़े का गमन हुआ,
ऊषा की बिखरी लाली, स्वर्णिम हर दृश्य हुआ,
आया ऋतुओं का ऋतुराज, कण-कण बसंत हुआ..
- इन्दुलेखा कनोजिया
उन्नाव, उत्तरप्रदेश