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8+8+8 का फॉर्मूला : संतुलित जीवन और कार्य का मार्ग


जब हम शिकायत करते हैं कि किसी कार्यालय या संस्थान का माहौल दिन-ब-दिन विषाक्त (टॉक्सिक) होता जा रहा है, काम का दबाव बढ़ता जा रहा है लेकिन वेतन में कोई वृद्धि नहीं हो रही, और वहाँ काम करना मानो नरक में जीवन जीने जैसा हो गया है, तो यह समझना जरूरी हो जाता है कि हम एक ऐसे समाज की बुनियाद रख रहे हैं, जहाँ तनावग्रस्त, दुखी और असंतुष्ट व्यक्तियों की संख्या लगातार बढ़ती जाएगी।

दुनिया जिस तेज़ी और प्रतिस्पर्धा के साथ आगे बढ़ रही है, ऐसे में अधिकांश कार्यालयों और संस्थानों का वातावरण नकारात्मक, बोझिल और तनावपूर्ण होता जा रहा है। जब कोई नया व्यक्ति किसी संस्थान से जुड़ता है, तो उसकी उम्मीद होती है कि वह ऐसे वातावरण का हिस्सा बनेगा, जहाँ न केवल आर्थिक स्थिरता मिलेगी, बल्कि मानसिक शांति और शारीरिक आराम भी मिलेगा। 

वह चाहता है कि काम के बाद घर लौटकर अपने परिवार, दोस्तों और सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग ले सके। लेकिन आज का कार्य वातावरण ‘बंधुआ मजदूरी’ के समान होता जा रहा है, जहाँ ‘मालिक’ स्वयं को ईश्वर मानने लगे हैं। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि कहावत बदलने का समय आ गया है कि ईश्वर ही मालिक नहीं, मालिक ही ईश्वर है।

आज संस्थानों में काम का दबाव और अपेक्षाएँ तो बढ़ी हैं, लेकिन साथ ही कर्मचारियों का संस्थान बदलने का सिलसिला भी तेज़ हो गया है। ऐसे कई लोग मिलेंगे जो हर साल किसी नए संस्थान में कार्यरत मिलते हैं। इसका मुख्य कारण संस्थानों की कार्यशैली है। सुबह कार्यालय आने का समय सख्ती से तय होता है, लेकिन घर लौटने का समय अक्सर अनिश्चित हो जाता है। यह समय रावण के सिरों की तरह बढ़ता रहता है और तब तक समाप्त नहीं होता, जब तक विभीषण (मैनेजर) यह न बताए कि रावण (काम) की समाप्ति और घर जाने का समय क्या होगा।

कर्मचारी कल्याण के नाम पर आजकल दफ्तरों में मानसिक स्वास्थ्य बेहतरी, सकारात्मकता और व्यक्तित्व विकास के नाम पर दिखावे का चलन बढ़ा है। सप्ताहांत पर तनाव-मुक्ति, समय प्रबंधन, खुश कैसे रहें, अपने भीतर खुशी की तलाश कैसे करें, कर्मचारियों से कैसे बेहतर पेश आएँ आदि कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं, जो सिर्फ औपचारिकता भर लगती हैं। आप इन कार्यशालाओं में बैठे कर्मचारियों के मुरझाए चेहरे देखेंगे, जो स्पष्ट रूप से बताते हैं कि ऐसी कार्यशालाओं से ज़्यादा ज़रूरत कार्यालय के कार्य वातावरण और बोझिल कार्यों को सुधारने की है। अगर वातावरण बेहतर हो, तो इन कार्यशालाओं की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

हमने हमेशा पढ़ा और लिखा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लेकिन आधुनिक कॉर्पोरेट व्यवस्था ने मानो इस सामाजिक स्वभाव को पूरी तरह खत्म कर दिया है। स्थिति अब ऐसी हो गई है कि अपने पड़ोसियों से हालचाल पूछने का समय भी इस व्यवस्था ने हमसे छीन लिया है।

हर व्यक्ति के लिए 8+8+8 का संतुलित फॉर्मूला होना चाहिए। इसमें 8 घंटे संस्थान के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ कार्य करने के लिए, 8 घंटे परिवार, समाज और व्यक्तिगत जीवन को देने के लिए और 8 घंटे गुणवत्तापूर्ण नींद के लिए निर्धारित होने चाहिए। इस संतुलन से किसी भी पद पर कार्यरत व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर बना रहेगा।

संस्थानों की प्राथमिकता होनी चाहिए कि वे कर्मचारियों के लिए सकारात्मक, प्रेरणादायक और सहयोगपूर्ण वातावरण तैयार करें। लेकिन अक्सर होता यह है कि संस्थान काम के घंटों को बढ़ाने, अनावश्यक मीटिंग्स करने और दिखावे की गतिविधियों में ऊर्जा लगाते हैं। वेतन वृद्धि और कर्मचारियों के कल्याण के लिए कदम उठाने में यह तत्परता नहीं दिखाते।

यह कहना भी पूर्णतः गलत होगा कि समस्या सिर्फ संस्थानों में है। कर्मचारियों में भी कई कमियाँ होती हैं। ऐसे लोग मिलते हैं जो खुद को मालिक के करीबी दिखाने के चक्कर में संस्थान को अपनी निजी संपत्ति समझने लगते हैं। अक्सर ऐसे लोग देखने को मिलते हैं जो खुद को बॉस की आँख, कान और नाक समझते हुए दफ्तर में घूमते रहते हैं। उनका काम केवल देखने, सुनने और सूंघने तक सीमित होता है। इनकी वजह से वे कर्मचारी, जो ईमानदारी और मेहनत से काम करते हैं, अक्सर पीछे रह जाते हैं। उनकी काबिलियत को कद और पद के आधार पर अनदेखा कर दिया जाता है।

आज नितांत आवश्यक है कि संस्थान और कर्मचारी दोनों ही आत्ममंथन करें। संस्थान अपने कार्यशैली में सुधार लाएँ और कर्मचारियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करें। वहीं, कर्मचारियों को भी अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाते हुए एक स्वस्थ कार्य संस्कृति बनाने में सहयोग करना चाहिए। तभी हम तनावमुक्त, संतुलित और खुशहाल समाज का निर्माण कर पाएंगे।
 
- प्रा. रवि शुक्ला
   अबु धाबी
लेख 5584416795420856997
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