समतल
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हे अनंत आकाश,
जब मैं तुम्हारी ओर,
निहारती हूं,
तो ऐसा प्रतीत होता है,
मानों तुम धरती से
बिल्कुल नज़दीक हो,
बस थोड़ीं सी ही ऊंचाई पर,
और मैं अपने छोटे छोटे,
दोनों हाथ,तुम्हारी ओर,
ऊपर उठा देती हूं ।
तुम्हारी ऊंचाई को
पाने के लिए,
ज्यों ज्यौं मैं हाथ,
उपर ऊठाती जाती हूं,
तुम्हें ऊपर, और ऊपर,
सबसे ऊपर पाती हूं,
तुम्हें छू नहीं पाती,
और तुम्हें पाने की
अथक कोशिश में,
समतल भूमि पर फिसल जाती हूं।
समतल पर गिरकर,
यह अहसास होता है कि,
तुम्हारी ऊंचाई को पाने के लिए,
हाथ ऊपर उठाने की नहीं,
समतल पर पैर जमाकर,
खडे़ रहने की,सम को
आत्मसात करने की ही
आवश्यकता है।
तब बिना हाथ उठाए ही,
तुम स्वत: नीचे आकर,
हृदय में समा जाते हो,
और ऊंचाई को पाने का,
आनंद, आल्हाद,
प्रदान कर देते हो।
- प्रभा मेहता, नागपुर