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नसीब




कोई बने अमीर,  
तो कोई गरीब, 
यह न सोचें  कि 
क्या है नसीब।

जैसी उसकी मर्जी, 
छोड़ दें रब पर
उसकी मेहरबानी, 
तुझपर और मुझ पर।

कुछ तो सोचकर बनाया उसने,  
किसका कितना और कैसा नसीब, 
जितना जो पाए, 
ये उसका नसीब।

जो पाया , कह देते हैं  नसीब,   
कुछ अच्छा तो नसीब, 
कुछ बुरा तो भी नसीब, 
आखिर होता क्या है 
ये नसीब?
जो लिखा,  
वही है नसीब।

इस नसीब के फिक्र में, 
दुनियादारी छोड़ दी उनने,  
फिर खाली हाथ कहते रहे,  
यही उनका नसीब, 
यही उनका नसीब।

और एक वो हैं,  
सोचा ही  नहीं , 
क्या है नसीब, 
लेकिन औरों ने कहा,
देखा,  
इसे कहते हैं  नसीब!

- डॉ शिवनारायण आचार्य 
   नागपुर, महाराष्ट्र
काव्य 8081734081903047950
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