विदेश में बसे बच्चे और भारत में अकेले माता-पिता की पीड़ा
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माता-पिता के जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है अपने बच्चों का सुखमय जीवन देखना। वे अपने बच्चों को हर खुशी देने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं। परंतु जब वही बच्चे विदेश में स्थाई हो जाते हैं और माता-पिता अकेले रह जाते हैं, तो यह अकेलापन उनके लिए एक असहनीय दर्द बन जाता है। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण देश ने मौजूद है। आज ऐसे ही एक परिवार से मुलाकात हुई। उनका सुख सुविधाओं से भरा घर.. नौकर चाकर लेकिन अपनो से दूर रहने की पीड़ा को अनुभव किया...मां की ममता अपने बच्चो को छांव को तड़प रही थी। उसी पीड़ा से आज यह विचार उभर पड़े।
आज के इस युग में, जहां वैश्वीकरण और आधुनिकता ने सीमाओं को लांघ दिया है, वहीं इसकी एक पीड़ा भी समाज में घर कर चुकी है। यह पीड़ा उन माता-पिता की है, जिनके बच्चे विदेशों में स्थाई रूप से बस चुके हैं और उन्होंने अपने करियर और जीवन की ऊंचाइयों को छूने का सपना साकार कर लिया है। परंतु इसके साथ ही उनके माता-पिता अपने ही देश में अकेले रह गए हैं, अपनो में अपने अस्तित्व की खोज में भटकते हुए।
विदेश का आकर्षण और बुजुर्गों का अकेलापन
आज के युवा अपने करियर की उन्नति के लिए विदेशों की ओर रुख करते हैं। उच्च शिक्षा, बेहतर अवसर और जीवन स्तर की तलाश में वे अपने देश से दूर जाकर स्थाई जीवन बना लेते हैं। लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू यह है कि उनके माता-पिता अपने जीवन के उस पड़ाव में अकेले रह जाते हैं जब उन्हें सबसे ज्यादा सहारे की आवश्यकता होती है।
बुजुर्गों की अपेक्षाएं और टूटते सपने
हर माता-पिता का सपना होता है कि उनका बुढ़ापा उनके बच्चों के साथ गुजरे, वे अपने जीवन की संध्या में अपने बच्चों के साथ सुख-दुख साझा कर सकें। लेकिन जब बच्चे विदेश में स्थाई हो जाते हैं, तो यह सपना टूट जाता है। माता-पिता को अपने ही घर में अकेलेपन का बोझ उठाना पड़ता है। कई बार वे फोन या वीडियो कॉल के सहारे अपने बच्चों से जुड़े रहते हैं, लेकिन एक वास्तविक जुड़ाव की कमी उन्हें हर पल कचोटती रहती है।
शारीरिक और मानसिक समस्याओं का बढ़ता बोझ
बुढ़ापे में शारीरिक कमजोरी और बीमारियां आम बात हैं। ऐसे में माता-पिता को अपने बच्चों का सहारा चाहिए होता है। जब वे किसी बीमारी से जूझ रहे होते हैं, अस्पताल जाते हैं, या दिन-रात बिस्तर पर लेटे होते हैं, तो उनके दिल की गहराई में सिर्फ यही चाह होती है कि काश उनके बच्चे उनके पास होते। यह दर्द और भी ज्यादा तब बढ़ जाता है जब किसी आपातकालीन स्थिति में वे अकेले पड़ जाते हैं।
समाज और रिश्तेदारों की समझ और उपेक्षा
अक्सर समाज या रिश्तेदार भी ऐसे माता-पिता को लेकर गलतफहमी में रहते हैं। उन्हें लगता है कि ये बुजुर्ग अपने बच्चों की खातिर विदेश की सुख-सुविधा का आनंद ले रहे हैं, जबकि हकीकत में वे अपार अकेलापन और पीड़ा से गुजर रहे होते हैं। कई बार लोग कहते हैं कि "आपके बच्चे तो विदेश में बस गए, आपका जीवन तो अब आराम से गुजर रहा होगा।" लेकिन उनके मन की गहराइयों में छुपे दर्द को कोई नहीं देखता।
क्या समाधान है?
यह परिस्थिति एक गंभीर सामाजिक मुद्दा बन चुकी है। बच्चों को चाहिए कि वे समय-समय पर अपने माता-पिता के पास आएं, उनके साथ समय बिताएं और उनकी भावनाओं को समझें। इसके अलावा, समाज को भी चाहिए कि वह ऐसे बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील हो और उनकी देखभाल में योगदान दे। कुछ लोग माता-पिता को भी साथ ले जाने का प्रयास करते हैं, लेकिन सांस्कृतिक और भावनात्मक जुड़ाव के कारण कई बुजुर्ग अपनी मातृभूमि छोड़कर विदेश नहीं जाना चाहते।
बच्चों को चाहिए कि वे अपने माता-पिता की भावनाओं का आदर करें और उन्हें भावनात्मक सहारा देने की कोशिश करें। समाज और बच्चों को मिलकर इस दर्द को कम करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि बुजुर्गों को उनका हक और सहारा मिल सके।
नागपुर, महाराष्ट्र