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ग़ज़ल


चाहत से किसी को तेरी इंकार नहीं है 
हर दिल में मगर जुरअत-ए- इज़हार नहीं है 

सहरा का सफ़र काट के लौटा तो ये देखा 
शहरों में भी अब साया-ए-दीवार नहीं है 

देखा न करो सब को मुरव्वत की नज़र से 
हर शख़्स इनायत का तलबगार नहीं है 

आने में झिझक होगी न जाने में तकल्लुफ़ 
इस घर में कहीं भी दर-व-दीवार नहीं है 

इक तुम ही नहीं ख़्वाब में डूबे हुए ए दोस्त 
हर जागने वाला यहाँ बेदार नहीं है 

(जुरअत = हौसला, मुरव्वत = इंसानियत, बेदार = जागना.)

- डॉ. समीर कबीर
   नागपुर, महाराष्ट्र 
ग़ज़ल 7528385492371658747
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