ग़ज़ल
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हर दिल में मगर जुरअत-ए- इज़हार नहीं है
सहरा का सफ़र काट के लौटा तो ये देखा
शहरों में भी अब साया-ए-दीवार नहीं है
देखा न करो सब को मुरव्वत की नज़र से
हर शख़्स इनायत का तलबगार नहीं है
आने में झिझक होगी न जाने में तकल्लुफ़
इस घर में कहीं भी दर-व-दीवार नहीं है
इक तुम ही नहीं ख़्वाब में डूबे हुए ए दोस्त
हर जागने वाला यहाँ बेदार नहीं है
(जुरअत = हौसला, मुरव्वत = इंसानियत, बेदार = जागना.)
- डॉ. समीर कबीर
नागपुर, महाराष्ट्र