किसी भी पार्टी का टिकट मिल जाए..
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अनिल सोनकर और जयंत देशमुख दोनों गहरे मित्र हैं। साथ-साथ पढ़े, साथ-साथ बढ़े। अनिल सोनकर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पद से इसी वर्ष जुलाई में तो केशव महाविद्यालय के प्रिंसिपल जयंत देशमुख गतवर्ष निवृत हुए थे। क्षेत्र में बहुत उच्च पदों पर काम करने वाले वैसे ही दोनों बड़े प्रसिद्ध थे। पहले भी बातचीत होती थी कि दोनो की रिटायरमेंट के बाद क्या करें? इतने धन सम्पदा और ख्याति कमाई है तो उसका कुछ तो कुछ लाभ तो लेना चाहिए।
सौभाग्य से महाराष्ट्र के विधानसभा के चुनाव का अवसर आ गया। ऐसे में नए पुराने नेता इधर-उधर भाग रहे हैं क्यों ना अपना भाग्य भी आजमाया जाए?
रिटायर होते ही जब अपने क्षेत्र लौटे तो उन्होंने जन्मदिवस पर एक बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया और हजार बारह सौ लोगों को सम्मिलित किया। इसमें उसके मित्रो के साथ-साथ बड़े व्यापारी, उद्योगपति, पत्रकार और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी भी थे। अवसर पर एक सुप्रसिद्ध दैनिक पत्र भास्कर और लोकमत में अनिल सोनकर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अच्छे लेख प्रकाशित थे। हर्ष की पगड़ी सर में बांधे आदमकद फोटो खींची । उसमें एक लेखक जयंत देशमुख भी थे। अन्य लेखन में विकास गोडबोले, प्रकाश ठाकुर, नीलम सराफ, और पत्रकार भावसार के छोटे छोटे लेख थे। सारे लेख रिटायर्ड कलेक्टर अनिल सोनकर के प्रशंसा में थे। कैसे-कैसे उन्होंने उन्नति की और कैसे कलेक्टर की पद पर पहुंचे आदि। रात्रि का कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा और उनका अभिनंदन किया गया। आमंत्रित सदस्यों में शहर के गणमान्य लोग, पुलिस अधिकारी, शिक्षाविद, वकील, डॉक्टर, सोशलवर्कर आदि आमंत्रित थे।
इसी तरह का आयोजन अपने क्षेत्र में प्रिंसिपल साहब जयंत देशमुख ने सफल आयोजन किया। ना जन्म तिथि थी ना वैवाहिक वार्षिकी थी, तो उसने पोते का मेडिकल कॉलेज में प्रवेश समारोह मनाया। उसमें माानीय शरद पवार भी आने वाले थे। कार्यकर्ता हजार बारह सौ की संख्या मे होगे। देशमुख के कार्यक्रम में हवा थी। एनसीपी के उध्दव ठाकरे स्थानीय पार्टीओ के लगभग सभी चेहरे और सामाजिक कार्यकर्ता आए थे।
वास्तव में दोनों की भाग्य रेखा गहरी थी इसलिए नौकरी के अतिरिक्त उन्हें बहुत कुछ मिलता था। इससे बड़ी साख थी। रूपए पैसे को अदृश्य पंख होते हैं वह कैसे उड़ जाते पता नहीं चलता। यहां भाजपा के स्थानीय नेता अपने कुछ कार्यकर्ताओं के साथ शामिल थे। प्रिंसिपल साहब ने तो भीड जुटाने के लिए डांस प्रोग्राम भी रखा था। अनिल सोनकर और देशमुख की दोस्ती सबको पता थी और इसलिए कार्यक्रम को देखकर सबको लगता था कि शायद एक राजनीति में जाना चाहते हैं लेकिन उन्होंने खुलासा नहीं किया।
एक सप्ताह बाद अनिल सोनकर अपने मित्र जयंत देशमुख को साथ लिए जलगांव अपने घर आए तो पिताजी यानी अण्णा साहेब आराम कुर्सी पर झूल रहे थे। सोनकर के साथ देशमुख ने भी उनके पैर छुए और हाल-चाल पूछा। वे दोनों को आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘सुना है रिटायरमेंट के बाद तुम दोनों मित्र राजनीति में जाना चाहते हो?’
‘हां। आपका आशीर्वाद लेने आए हैं।’
‘अच्छी बात है रिटायर्ड हुए हो टायर्ड नहीं। कुछ करना चाहिए।’
पुनः वयोवृद्ध पिता ने पूछा, ‘पर रिटायरमेंट के बाद राजनीति में ही क्यों? बुढ़ापे में राजनीति में पैर रखना क्या सही है? जबकि मोदी जी ने बता रखा है कि सत्तर साल के बाद छुट्टी।’
‘लेकिन स्वयं उन्होंने अपनी छुट्टी कहां की ?’
‘करेंगे, करेंगे। वैसे, आप दोनो को समाज के लिए काम करना है तो राजनीती मे क्यो जाना चाहते हो? सेवा तो ऐसे भी की जा सकती है? अनिल पिता के प्रश्न पर उलझना नहीं चाहता था।’
राजनीति में काम कैसे किया जाता है सारा अनुभव हो गया है। फाईलें कैसी सरकती हैं, किस तरह काम होता है सब अनुभव हो गया है।
‘पिताजी यह वाद विवाद का विषय है।’
‘तो क्या अपनी पार्टी बनाना चाहते हो?’
‘पंद्रह वर्ष कलेक्टर रहा हूं। इस तरह के आंदोलन करने का स्वभाव नहीं है। मैं पब्लिक डीलिंग में नहीं रहा। इसलिए मेरा कोई जनाधार भी नही है। ऊपरी नेताओं से नेताओं से थोड़े बहुत संबंध है, बस।’
‘किसकी प्रेरणा से राजनीति में जाना चाहते हो? आपके पास कोई नई योजना है देश को बदलने की या सामाजिक व्यवस्था सुधारने की?’
ऐसे ही तीस साल सरकार के बंधन में नौकरी की। खुले मैदान में काम करना चाहते है। राजनीति कैसी विचित्र हो गई है? हत्या, घोटाले, जालसाजी, अपहरण बलात्कार, भू-माफिया, कोयला माफिया क्या नहीं हो रहा है देश के कोने कोने में?’
फिर? किस पार्टी से जुड़ना चाहते हो?
अपने महाराष्ट्र में तीन चार पार्टिया है बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी,और शिवसेना। कैसे दिमाग में घुस गया यह सब्जेक्ट की राजनीति में जाना चाहिए। आप किस पार्टी में जाना चाहते हो?
‘बाबा, मैं अपनी तरह से प्रयन्न कर रहा हूं। जयंत अपनी तरफ से प्रयत्न कर रहा है। कही कही दोनों मिलकर प्रयत्न कर रहे हैं। जिस पार्टी का भी टिकट मिल जाए उसी में शामिल हो जाएंगे।’
‘तो क्या राजनीति का टिकट रेल या हवाई जहाज का टिकट है, ये नहीं तो वो।’
‘ऐसी ही मिली-जुली राजनीति हो गई है। जयंत तो एक वर्ष पहले रिटायर हो गया था। दिल्ली के बड़े नेताओं के सम्पर्क है। इस समय सब कुछ मिलाजुला है। एलाइनमेंट है पार्टियों में।’
‘काका जी अब एक पार्टी की सरकार नहीं बनती। जयंत बात समाप्त करते हुए बोला, ‘अब हम चलते है। नमस्कार। कहकर दोनेां निकल गए।’
अण्णासाहेब ने हाथ जोड़े और सोचने लगे, ‘राजनीति कैसी आकर्षक नर्तकी है? कितने रूप धारण करती है? यहां पर एक, जिला प्रशासक, कलेक्टर पद से और दूसरा कॉलेज का रिटायर प्रिंसिपल किसी भी पॉलीटिकल पार्टी में शामिल होना चाहते हैं। कोई नीति कोई पॉलिसी के कारण नहीं! बस, राजनीति की चकाचौंध और प्रशासनिक अधिकार पाने के लिए! सेवा तो बिना पॉलीटिकल पार्टी के भी कर सकते हो बिना राजनीति के भी कर सकते हो ।कौन मना करता है ? जीवन में इतना सुख भोग लिया फिर भी इच्छाएं मरी नहीं है इनकी।’
जब ये पढ़े-लिखे लोग भी अच्छे-बुरे की पहचान करके मतदान नहीं करते, तो सामान्य मतदाता कैसे सही नेता का चुनाव करेगा? किसान, मजदूर, अगडे पिछड़े कैसे सही मतदान कर सकते हैं। अरे! पढ़े लिखे अनुभवी लोग किसी भी पार्टी में शामिल होते हो तो सामान्य क्या सोचेगा? इसी का नाम प्रजातंत्र है।
दरअसल दोनों तरफ विद्वानों की भरमार है। सच्चे मार्ग के पास भी विद्वानों की भरमार है और असत्य ज्ञान फैलाने वाले लोगों में भी विद्वानों की कोई कमी नहीं है।
बाबा जब इस विषय पर सोच रहे थे की इसी बीच उनका एक पुराने मित्र का फोन आता है और स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करता है। और अण्णा साहेब हंसते हुए कहते हैं कि, ‘हमारे सुपुत्र कलेक्टर साहब रिटायरमेंट के बाद चुनाव लड़ना चाहते हैं। बताओ?’
‘अच्छी बात है। बिगड़ेंगे या सुधरेंगे। आप क्यों परेशान हो रहे हो?’
‘परेशान तो इसलिए हो रहा हूं कि कहता है किसी भी पार्टी में चला जाऊंगा!’
- सुरेश खांडवेकर