मुफ्त का चमत्कार..
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'मुफ्त का चमत्कार' हमारे लोकतंत्र का ऐसा हिस्सा बन गया है, जहां सब खुश रहते हैं - सरकार अपने वादों से, और जनता अपने सपनों से!
देश की जनता को मुफ्त चीजों से इतना प्रेम हो चुका है की अब चुनाव आते ही वे राजनीतिक पार्टियों के चमत्कारी झोले की राह देखने लग जाते। सरकारें भी यह बात बखूबी समझ चुकी हैं। इसीलिए हर चुनाव से पहले जनता के लिए एक 'मुफ्त उपहार योजना' का झोला तैयार किया जाता है। गरीबों के लिए मुफ्त राशन, किसानों के लिए मुफ्त बिजली, महिलाओ के लिए लाडली बहना योजना, छात्रों के लिए मुफ्त लैपटॉप और बुजुर्गों के लिए मुफ्त तीर्थयात्रा। यह सोचकर ही खुशी होती है कि हमारे देश में 'कुछ भी मुफ्त में मिल सकता है' का मंत्र जादुई सिद्ध हो चुका है।
इतना ही नहीं तो मुफ्त से काम ना चले तो जनता को कई मुद्दों पर कन्फ्यूज कर दो। वर्तमान में राजनीति में यही दो हथियार चल रहे है। मुफ्त का जलवा आप ने देखा, कन्फ्यूज का जलवा 'संविधान बचाओ' के मंत्र ने दिखा दिया। किसी को फायदा तो किसी को नुकसान हुआ। पहले महंगाई, बेरोजगारी, पेट्रोल जैसे मुद्दे चलते थे। जैसे ही कोई नेता मंच पर आता है और कहता है, 'हम आपको मुफ्त में देंगे..', जनता के कान खड़े हो जाते हैं। और अगर उन्होंने पीछे से कुछ 'मोबाइल, लैपटॉप, या फ्री वाई-फाई' का नाम ले लिया, तो समझिए चुनाव जीतना पक्का है! क्योंकि आखिर किसे मेहनत करके पैसे कमाने की जरूरत है, जब सरकार मुफ्त में ही सब कुछ देने को तैयार बैठी है?
हाल ही में लोकसभा चुनाव में एक राजनीतिक दल ने 8500 रुपए खटा खट, खटा खट देने कि घोषणा की थी। फायदा हुआ.. परंतु सरकार नहीं बनी। मध्यप्रदेश में लाडली बहना ने पूरी सीटे एक ही दल की झोली में डाल दी। कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली में भी मुफ्त का जादू चल गया। अब महाराष्ट्र में चुनाव है.. एमपी की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी 'लाडकी बहीण', व्योश्री योजना, लाडका भाऊ जैसी योजनाएं लाकर चुनावी नैया पार करने की जुगत भिड़ा रहे है। सिर्फ यही राज्य ऐसा नहीं कर रहे.. अनेक राज्यों में मुफ्त की नाव पर ही सत्ता हासिल की हैं।
मुफ्त की योजनाओं का दूसरा पहलू भी है.. घरों में काम करने लोग नही मिल रहे... योजनाओं का लाभ मध्यम वर्गीय को नहीं हो रहा.. जिससे वह वोट देने नहीं निकलते, नाराज है.. जिन्हें लाभ होता हैं वे किस पार्टी को वोट करते है यह भी प्रश्न चिन्ह है। घरों में पति पत्नी की नोकझोक भी आम हों गई है। आखिर देश किस दिशा में जा रहा है?
राज्य की मुफ्त योजनाएं आजकल आम जनता के लिए एक ऐसा जाल बन गई हैं, जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो सरकार जनता का भला कर रही है, पर असल में यह जनता को आलसी बनाने की साजिश तो नहीं!
'मुफ्त' शब्द अब इतना प्रिय हो गया है कि लोग सोचते हैं कि मेहनत तो उनके पुरखों के जमाने की बात थी। अब तो बस मुफ्त योजनाओं का आनंद लें और वोट दे दें। सरकारें जो मुफ्त देना चाहिए वह देती नहीं है। देश में शिक्षा व बीमारी का इलाज सबके लिए 'मुफ्त' होना चाहिए...आरक्षण भी सबके लिए हो...या फिर किसी के लिए नहीं! ऐसा हो नही सकता। यदि हो जाएं तो फिर किसी को किसी भी "मुफ्त" सुविधाओ की जरूरत ही महसूस नहीं होगी।
- डॉ. प्रवीण डबली
वरिष्ठ पत्रकार, नागपुर, महाराष्ट्र