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दिल का रास्ता पेट से जाता है : डॉ. लता अग्रवाल


नागपुर। वर्तमान में बदलती जीवन शैली, उस पर पाश्चात्य व्यंजनों का रसोई पर हावी होना, शिक्षा का संस्कृति से दूर होना, गृह विज्ञान जैसे विषय का लुप्त होना। महिलाओं की आर्थिक अर्जन में सक्रियता, कार्यक्षेत्र के अधिक घंटे, शारीरिक, मानसिक थकान, जो परिवार कभी बच्चो के ट्रेनिंग सेंटर थे अब प्रयोगशाला बन गए। घर में रसोइया रखना, बाहर भोजन करना प्रेस्टीज प्वाइंट हो गया है। हमारे मनीषियों ने जो घर की दाल रोटी को भी पकवान के समान बताया, उसके पूछे कई साइंटिफिक कारण थे, जिसे जानने और समझने की आवश्यकता है। इसके दुष्परिणाम तेजी से सामने आ रहे हैं, परिवार स्वास्थ्य खो रहे हैं।“ उक्त उद्गार भोपाल की वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’ ने मुख्य वक्ता के रुप में बोलते हुए कही। 

अवसर था विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के द्वारा राष्ट्रीय आभासी मासिक संगोष्ठी  जिसका माह का विषय था ‘महिलाओं की रसोई से बढ़तीं दूरी’।  
वक्ता डॉ. जया सिह, प्राचार्य आई.सी.एफ.एआई, रायपुर ने कहां कि प्राचीन परंपराओं को आत्मसात करना हमारी संस्कृति रही है। आधुनिकता की रौ में बह जाने से परंपराए चरमराने लगती है। घर के बने खाद्य पदार्थ जहां स्वास्थ्य वर्धक होते हैं, वहीं उनकी पौष्टिकता और स्वाद प्रेम से स्नेहासिक्त होते हैं। मन और आत्मा की तृप्ति करते हैं। आज महिलाओं की रसोई घर से दूरी क्यों हो रही है विषय चिंतन योग्य है, तो वहीं विचारणीय भी। महिलाओं की रसोई से बढ़ती दूरी के कई कारण हो सकते हैंः शिक्षा और करियर: महिलाएं अब अधिक शिक्षा प्राप्त कर रही हैं और करियर में भाग ले रही हैं, जिससे उनकी रसोई में बिताने का समय कम हो गया है।

दूसरी वक्ता डॉ. रजिया शेख, महाराष्ट्र ने कहा कि बाजरी करण भी वजह है हर व्यंजन बाहर मॉल  में मिलता है बाहर खाने से स्वास्थ्य पर पूरा प्रभाव भी पड़ रहा है। 
अध्यक्षता कर रही डॉ. विजयालक्ष्मी रामटेके, अध्यक्ष विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान प्रयागराज ने कहा कि कामकाजी महिलाएं मानसिक तनाव में रहती है जिसकी वजह से स्वास्थ्य खराब हो जाता है अतः महिलाओं को पकवान की व्यावसायिक शिक्षा देने की आवश्यकता है।

प्रस्ताविक उदबोधन में संस्थान के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने कहा कि घर की रसोई की जो लज्ज्त, मिठास, सोधी महक होती है वह हमें किसी फाइव स्टार होटल, रेस्टोंरेट में कदापि नहीं मिल सकती है। घर की जली रोटी का मिठास हमें बाहर की चमकती रोटी में कदापि नहीं मिल सकता। पहले हम दादी की रसोई, माँ की रसोई, बुआ की रसोई, बहन की रसोई, पत्नि की रसोई का जो भोजन होता है। उसमें प्यार, अपनत्व, मिठास समाहित होता है। पहले जब माँ के द्वारा लकड़ी व कंडी पर बनाई गई मोटी रोटी सब्जी सहित अन्य पकवान खाते थे तो उसमें इतनी मिठास होती थी कि हम भूख से भी अधिक खाते थे, बार-बार भूख लगती थी। 

आयोजन की संचालिका एवं संयोजिका संस्थान की छत्तीसगढ़ प्रभारी डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक ने कहा कि महिलाओं की रसोई से दूरी का कारण महिलाओं का नौकरी करना और सामाजिक परिवर्तन है। 
कार्यक्रम का प्रारंभ डॉ. कृष्णामणीश्री, कर्नाटक की सरस्वती वंदना से हुआ। स्वागत उद्बोधन डॉ. रश्मि चैबे, गाजियाबाद ने किया। आभार श्री लक्ष्मीकांत वैष्णव सक्ति, छत्तीसगढ़ ने किया। आभासी पटल पर ओम प्रकाश त्रिपाठी, रतिराम गढ़ेवाल, श्रीमती उपमा आर्या, डॉ. अर्चना चतुर्वेदी, श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव सहित अनेक विद्वान, साहित्यकार, प्राध्यापकगण, शोधार्थी एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित रहे।
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