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अम्मी


कैसे मान लूं की अम्मी अब नहीं रही।
माँ तो झलकती है 
बेटियों की बोली में,
और उनके सलीके में,
अपनी गुड़ियों के बावर्चीखाने में,
दस्तरखान में और मेहमान नवाज़ी में।
घर के आंगन में और दहलीज में,

माँ का वूजूद है बच्चों की रगों में,
परछाई है वो उसकी,
माँ नज़र आती है 
बेटों के आदाब में, उनकी तहज़ीब में, 
लफ्जों में और लहज़े में ।
वो  झलक पड़ती है 
बच्चों की तमीज़ में।
वो तो ज़िंदा है अपने बच्चों के आसाफ़ में ,

 माँ लाफानी शख्सियत है,
जो शहीद हो जाती है,
औलाद की परवरिश में, 
और उनकी तरबियत में।

- डॉ. तौक़ीर फातमा ‘अदा’
   कटनी मध्य प्रदेश
काव्य 1607827165720054181
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