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प्रज्ञाचक्षु संत गुलाबराव महाराज का 20 सितंबर को महा पुण्यस्मरण दिवस पर नमन


संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम के बाद महाराष्ट्र में संतों की श्रृंखला में प्रज्ञाचक्षु संत गुलाबराव महाराज का नाम अत्यंत श्रद्धा से लिया जाता है

नागपुर। शैशव काल से ही संत गुलाबराव महाराज अंधत्व का शिकार हो गए थे। बलखाती, लहराती गंगा को जिस तरह कोई भी बाधा गंगासागर में समाहित होने से रोक नहीं सकती, उसी तरह प्रज्ञाचक्षु संत गुलाबराव जी महाराज को ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हुए परमात्म उपलब्धि में उनका अंधत्व भी बाधा न बन सका। विदर्भभूमी में स्थित अमरावती से कुछ मील दूर 'माधान' नामक गाँव है. यह श्री गुलाबराव महाराज का ननिहाल है. माधान के मोहोड कुल में श्रीमती अलोकाबाई ने 6 जुलाई 1881 को महाराज को जन्म दिया. उनके पिताश्री का नाम गोंदूजी मोहोड था, वे माधान के पाटिल थे. उम्र के आठवें महिने मे गुलाबराव महाराज को आँखों मे कोई बिमारी हुई, पर गलत दवा के कारण उनके चक्षु हमेशा के लिए बंद हो गए. बाहरी दृष्टि गुम हो गई, फिर भी उन्होंने विभिन्न विषयों पर लगभग 133 किताबें लिखीं, जिनमें 6000 से अधिक पृष्ठ, 130 टिप्पणियाँ और लगभग 25,000 छंद कविता में थे। वर्ष 1885 में जब वह चार वर्ष के थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया। उसके बाद वे लगभग 6 वर्षों तक लोनी टाकली नामक स्थान पर अपनी नानी के घर पर रहे। 

इस अवधि में लोगों को उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता और उनकी ‘दिमागी दृष्टि’ के बारे में पता चला, हालाँकि उन्होंने अपनी आँखों की दृष्टि खो दी थी। जिस घर में वे रहते थे, उसके सामने एक सामुदायिक कुआँ था और गाँव की महिलाएँ पानी भरने के लिए कुएँ पर आती थीं। छोटा गुलाब उन सभी को उनके नामों से पुकारता और महिलाएँ आश्चर्यचकित होकर सोचतीं कि अंधे लड़के को उनके अलग-अलग नामों के बारे में कैसे पता चला? वह कई बार रात में गहरी समाधि की अवस्था में पाया गया था। शुरू में उसकी दादी और अन्य लोग गुलाबराव को योग मुद्रा में बैठे और पूरी तरह से साँस बंद करके देखकर डर गए थे। हालाँकि, कुछ बुजुर्ग और समझदार लोगों ने गुलाबराव की स्थिति को समझा और उनके रिश्तेदारों से समाधि के दौरान उन्हें परेशान न करने को कहा। उन्हें पवित्र गीत (भजन), पवित्र छंद (श्लोक) और रहस्यमय किताबें पढ़ना बहुत पसंद था। वह अपने दोस्तों से किताबें पढ़ने के लिए कहता और जैसे ही वह सुनता, तुरंत ही विषय को दोहराता। उनकी याददाश्त असाधारण थी। वह दस साल की उम्र में सभी वेदों और शास्त्रों को जान गया था।

वर्ष 1896 में उनका विवाह पास के गांव के किसान गणजी भूयार की बेटी मनकर्णिका से हुआ था। उन्होंने वर्ष 1897 से ही धार्मिक दर्शन पर निबंध और कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। यानी सोलह साल की उम्र से ही। तब से वे आस-पास के शहरों, गांवों और कस्बों में जाकर लोगों से मिलते थे और धर्म के विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे। लेकिन उस बाल महात्मा को भगवान की असीम दया से चिन्मय दृष्टि प्राप्त थी. अंधे होकर भी उन्हे विद्या उपार्जन का बहुत शौक था. अपनी जमा पूंजी आदि सर्वस्व न्यौछावर कर उन्होंने पांडुरंग पंत, लक्ष्मण भट, श्री जोशी जैसे पढ़े- लिखे विद्वानों से पश्चिमी दर्शन से लेकर संगीत, आयुर्वेद, थियॉसॉफी, इलेक्ट्रान सिद्धांत तक के ग्रंथों का श्रवण कर गहन शोध, चिंतन व मनन किया। इन विचार धाराओं और सिद्धांतों पर जब वे वक्तव्य देते, तो सुनने वाले हैरान रह जाते थे। 

महाराज कई प्रसंगो में चमत्कार का निषेध करते है, लेकिन उनके जीवन में अनेक चमत्कार हुए. उम्र के बाइसवें वर्ष मे उन्होने भागवत के दशम स्कंध मे वर्णित देवी कात्यायनी के मंत्र की दीक्षा ली और वही व्रत किया. बाद में शुक्लेश्वर वाठोडा नदी की रेत पर शिवलिंग बनाकर उन्होंने प्रतिदिन पूजा करने का 33 दिन का अनुष्ठान आरंभ किया. महाराज ने बहुत कम उम्र में 134 ग्रंथो की निर्मिती की यह एक चमत्कार ही है. यह सारा साहित्य की रचना अपनी युवावस्था के 34 वे वर्ष की मे ही उन्होने पूरा किया और अंत मे स. 1915 मे पुणेनगर मे भाद्रपद शुक्ल वामनद्वादशी, 20 सितंबर के दिन सूर्योदय के समय पर महाराज ने बहमस्थान के लिए महाप्रस्थान किया.

अमरावती स्थित उनके वाचनालय में आज लगभग 4 हजार ग्रंथ उपलब्ध हैं। उनके विषय में विद्धानों में यह धारना प्रचलित है कि वे 'शब्द संयम' साधना सिद्ध थे, यही कारण था कि वे हर धर्म व संप्रदाय के शास्त्रों की सुंदर विवेचना करने में सक्षम थे। यहां तक कि पशु - पक्षियों की भाषा का भी उन्हें ज्ञान था। संप्रदासुरत, सुखपरसुधा, प्रियलीला महोत्सव, नित्यतीर्थ, साधु - बोध, अभंग, पदरचना, पत्राचार, निबंध आदि रचनाओं में उनके पारदर्शी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। संत गुलाबराव जी महाराज अपनी सारी ग्रंथ संपदा के प्रति विनयानवत स्वीकार करते हैं कि यह सारी संपदा संत ज्ञानेश्वर महाराज के ग्रंथों पर भाष्य रूप है। 

उन्होंने स्वयं को संत ज्ञानेश्वर महाराज की कन्या रूप में ही रखा। वे कहते थे, 'मुझे ज्ञानेश्वर मां ने गोद लिया' संत गुलाबराव जी महाराज एक ऐसी संत विभूति रहे जिन्होंने भारतीय वांगमय में परस्पर विरोधी दिखाई देने अथवा अनुभूत होने वाले विचारों और सिद्धांतों में अकाट्य समन्वय स्थापित किया। परस्पर विरोधी सिद्धांतों में सर्वग्राह्य समन्वय स्थापित करने वाले वे एकमात्र संत रहे। यह अविश्वसनीय लेकिन सत्य है कि वर्ष 1901 में 12वीं सदी के महान संत ज्ञानेश्वर महाराज ने गुलाबराव से मुलाकात की और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। मायर्स, स्पेन्सर, डार्विन आदि के ग्रंथों पर भी उनकी समीक्षा अत्यंत विचारणीय है। संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम के बाद महाराष्ट्र में संतों की श्रृंखला में प्रज्ञाचक्षु संत गुलाबराव जी महाराज का नाम अत्यंत श्रद्धा से लिया जाता है।


- दिवाकर मोहोड
   शिवाजी कॉलनी, नागपुर 
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