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स्वर्ण पात्र


स्वर्ण धातु के पात्र में यदि कोई कूड़ा-करकट रखे और लोहे या प्लास्टिक के पात्र में भोजन करे तो उसे सभी मूर्ख ही कहेंगे तथा उसकी बेवकूफी पर हंसेंगे भी, लेकिन हंसने के पहले यह प्रश्न स्वयं से करना चाहिए कि क्या इस तरह का कार्य हम भी तो नहीं कर रहे हैं? स्वाभाविक है कि अधिकांश का मन' यही कहेगा 'नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा नहीं कर रहा हूं।' इस तरह का प्रश्न करने वाला यदि समक्ष उपस्थित है तो बहुत संभव है कि वाद-विवाद तक की नौबत आ जाए, लेकिन अगर शांत मन से सोचा जाए तो लगता है कि 'हां, इस तरह की गलती मैं ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोग करते आ रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे।इस विषय को प्रतीकात्मक रूप में लिया जाए तो मानव-तन (शरीर) सोने (स्वर्ण) का ही नहीं, बल्कि हीरे से भी कीमती है। कितनी पीड़ा सहकर जन्म दिया, वह मां के अलावा कोई और नहीं जान सकता है। 

इसी मनुष्य शरीर की विशिष्टता का उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास ने 'बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर-दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा' चौपाई में किया है। जाहिर है मां का गर्भ रूपी पात्र स्वर्ण जैसा कीमती था। जिसमें स्नेह, प्रेम, करुणा, दया आदि के बहुमूल्य रत्न थे। इसीलिए भगवान के लिए भी 'हिरण्यगर्भ' शब्द का प्रयोग होता है। सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्म जब ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुआ तब उस ब्रह्म को 'हिरण्यगर्भा' कहा गया। 'हिरण्य' का अर्थ स्वर्ण (सोना) भी होता है।जब मानव तन सोने जैसा है तो उसमें काम- क्रोध-मोह-लोभ जैसे विकार कूड़े-करकट ही तो हुए। इन विकारों का स्थान मन ही है। अधिकांश इन्हीं कूड़ों के चलते अपने बहुमूल्य जीवन को कूड़े-करकट जैसा बना देते हैं। इस तरह के उदाहरण हर काल में मिल जाएंगे। ऐसे लोगों की नकारात्मक प्रवृत्तियों के चलते समाज ने उन्हें निंदित दृष्टि से देखा। हिरण्य जैसे मनुष्य को काम- क्रोध और मोह-लोभ जैसे विकारों को अपने से अवश्य दूर करना चाहिए।

- डॉ. प्रभात पांडेय
   भोपाल, मध्य प्रदेश। 
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