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‘सेल्फ़ी : खुशी या खतरा’ विषय पर हिन्दी महिला समिति की सफल रही परिचर्चा


नागपुर। जानी मानी संस्था हिन्दी महिला समिति, हिन्दी के प्रचार प्रसार में सतत प्रयास रत रही है, गत् 50 वर्षों से और आज भी यह विभिन्न विषयों पर अपनी कलम चला रही है। इसी मुहिम के अन्तर्गत आज सुषमा अग्रवाल द्वारा प्रदत्त विषय पर सखियों ने अपनी लेखनी चलायी जिसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं। विषय था 'उफ्फ उफ्फ ये सेल्फ़ी'..

सखियों के विचार कुछ इस प्रकार से रहे......
- गीतू शर्मा कहती हैं ‘तस्वीरें लम्हों को यादों में ताज़ा रखती है", इसलिए लेनी भी चाहिए पर हर समय बस फोन हाथ में पकड़े सेल्फी सेल्फी सेल्फी उफ़ थोड़ा अजीब ही लगता है, किसी कार्यक्रम में जाओ, शादी ब्याह में या मंदिर आदि जगहों पर सेल्फी के दीवाने खुद को सेल्फी में कैप्चर करने में ही लगे होते है ध्यान अन्य किसी की तरफ़ जाता ही नही, आत्मुग्धता की लहर में बस खुदको निहारने में बाकी सब ज़रूरी तथ्य नजरंदाज हो जाते है। एक सीमा तक और वाजिब पलों को तस्वीरों में कैद करना सही है, किंतु "जोश में होश" नही खोना चाहिए। 

- अमिता शाह के अनुसार पिछले कुछ सालों में इसका इतना चलन बढ़ा है कि हर जगह हर कोई सेल्फी लेते हुए दिखता है। दोस्तों की पिकनिक हो, परिवार में शादी-ब्याह हो, रीयुनियन हो, ट्रेन या बस में कोई सहयात्री मिल जाए और उससे दिल मिल जाए तो सेल्फी.. इन शॉर्ट, सेल्फी के बिना जिंदगी अधूरी है। धीरूभाई अंबानी ने सोचा भी नहीं होगा के मैं जो मंत्र दे रहा हूं कि "कर लो दुनिया मुट्ठी में" इसका इतना विस्तार हो जाएगा.. कि दुरुपयोग भी होने लगेगा।

- गारगी जोशी के मतानुसार.. जीवन के कुछ खुशगवार पलों को यादों के रूप में कैद करना हो तो सेल्फ़ी एक अच्छा माध्यम है क्योंकि आप बिना किसी की मदद के उस पल को सदा के लिए अपने पास रख सकते हैं लेकिन अवसर, सावधानी और अति न हो इन तीनों को भी ध्यान में  रखना आवश्यक है। हालाँकि ये रोग कोरोना से भी बड़ी महामारी के रूप में फैल गया है, क्योंकि हमको स्वयं को देखना इतना पसंद है कि अपने हर रूप पर मुग्ध होकर उसे सेल्फ़ी के रूप में कैद कर लेना चाहते हैं और इसकी तो कोई वैक्सीन भी नहीं बन सकती बस सावधानी ही सुरक्षा है। उफ़ उफ़ ये सेल्फी !

- भगवती पंत के अनुसार.. आजकल मोबाइल फोन में सेल्फी का प्रावधान हो जाने से जन समूह तो जैसे इसका दीवाना हो गया है। बाजार, मॉल, मंदिर, पार्क रेल, प्लेन, यहाँ तक कि रेस्तरां में अपना मन पसंद भोजन की प्रदर्शनी करने की सेल्फी। यहाँ, वहां, ऊपर, नीचे, पहाड़, मैदान या सागर की लहरें या वन, उपवन में घूमते हुए सैलानी अब मौसम और प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाने से ज्यादा सेल्फी लेने में ध्यान देते हैं। आप किसी भी स्थान में जाइये हर जगह आपको अधनंगे पहनावे के साथ होंठों को पाउच बनाती हुई लड़कियाँ दिखाई देंगी। इस सेल्फी के वायरस ने घर की सीधी सादी महिलाओं को भी अपनी चपेट में ले लिया। अब यह सेल्फी वायरस तो एक कोरोना की तरह है जो समस्त विश्व में फ़ैल कर अपनी डंका बजा रहा है। हाल में ही मेरे किसी संबंधी के घर में मातम होगया था। माँ गुजर गयी थी। हम लोग भी उनको सांत्वना देने पहुंचे। अर्थी उठायी जा रही थी। तभी रोती हुई बिटिया तत्काल तेजी से उठ कर अर्थी के पास आकर सेल्फी लेते लेते बोल रही थी, ‘तुम हमेशा मेरी यादों में रहोगी माँ।’
सेल्फी का क्रेज है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। अब कहाँ तक गिनाऊँ? उफ़ ! जहाँ देखो यह सेल्फी ही सेल्फी। 

- रश्मि मिश्रा ने सेल्फ़ी की नकारात्मकता पर बल देते हुए कहा कि आजकल तो भइया ये जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा बन गई है। थोड़ी भी तैयारी की तो सेल्फ़ी लेना अत्यंत आवश्यक हो गया है। हो भी क्यों न! आज के तकनीकी युग ने इतनी तरक्की जो कर ली है। वरना एक ज़माना था कि कोई उत्सव होता था तब फोटोग्राफर बुला कर फोटो खिंचाई जाती थी या फिर कैमरा हो तो रील डलवा कर फोटो खींची जाती थी।और आज तो 'एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा' की कहावत चरितार्थ हो रही है। कोरोना के समय तो ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित किए गए उसमें आपकी भागीदारी ही सेल्फ़ी के द्वारा होती थी। ये परिपाटी इतनी प्रचलित हुई कि मंगल कार्यालयों में, सभागृहों में 'सेल्फ़ी कॉर्नर बनाए जाने लगे।अति सर्वत्र वर्जयेत, इस परिपाटी के भी अति प्रयोग से, असावधानी रखने से लोगों की जानें भी गईं। 

- रूबी दास के वक्तव्यानुसार सेल्फी का मतलब "मेरे द्वारा, मेरे लिए, मेरा ही चित्र जो कि  "जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए" के फार्मूले पर काम करता है। हाँ जी डिजिटल युग में अपनी तस्वीर मोबाइल  द्वारा स्वयं ही खींच लेना। कैमेरामैन की जरूरत नहीं सामने काला पर्दा नही, फोटोग्राफर एंगल ठीक करने के बहाने थोड़ा सा गाल, बाल छू लेने की जरूरत  नही पड़ती।यह सब बंद हो गया।अब तो जब चाहें तब जहां चाहो वहाँ फोटो खींचवा लो।अपनी तस्वीर देखने के लिए फोटोग्राफर  का इंतजार भी नही करना पड़ता।बटन दबाव और तत्क्षण ही तस्वीर  हाथ में। 

- पूनम मिश्रा कहती हैं कि सेल्फ़ी के आज सभी दीवाने हैं और बस इतना ही नहीं सभी चाहते हैं किसी भी नये स्थान पर जाएं तो सेल्फ़ी खींच ले ।सेल्फ़ी का  जीवन से बहुत करीबी रिश्ता है इसलिए तो सेल्फ़ी हमेशा न्यूज में बना रहता है। आये दिन हम खबर‌ पढते है कि सेल्फ़ी के कारण जान गंवा बैठे। आज से तकरीबन 8 - 9 बरस पूर्व कोलकाता की खबर थी की रेल पटरी पर मोबाइल हाथ में लिए फोटो खींच रहे लड़के की जान चली गयी अब देखिए मोबाइल में इतना डूब जाते हैं की रेलगाड़ी की भी आवाज सुनाई नहीं देती। 

- ममता विश्वकर्मा कहती हैं कि सेल्फी लेना आज की सबसे लोकप्रिय बीमारी है। सेल्फी लेकर सोशल मीडिया में अपलोड कर दिनभर फोन चेक करना कि कितने लाइक्स मिले, इसके खास लक्षणों में से है। युवाओं को क्या दोष दे, हम सब भी इससे अछूते नहीं हैं। नई ड्रेस, नई साड़ी पहन, हर तीज त्योहार में सेल्फी ले अपने रिश्तेदारों, दोस्तो में भेजते है।कहीं घूमने गए तो वहां की खूबसूरत यादों को संजो कर रखना, प्राकृतिक सौंदर्य, धार्मिक स्थलों, पर्यटन स्थलो को कैमरे में कैद कर अपने लोगों में भेजना। ये पल हमे खुशियां देते है, ये सब करने में कोई बुराई नहीं है।सो सेल्फी ले लेकिन सुरक्षा के साथ जान के खतरे के अलावा डॉक्टर कहते है कि मोबाइल का रेडियेशन हमारी त्वचा, आखों और मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालता है।सो सेल्फी ले,किंतु सुरक्षाऔर अपने स्वास्थ का भी ध्यान रखें। 

- जिगिशा शाह की कवितानुसार फिर भी सेल्फी लेना छोड़ते नहीं है.. कुछ लोग यादें भी बनाते हैं अच्छी वाली और कुछ लोग अच्छी यादें बनाने की चक्कर में जान भी गवाते हैं उफ़ यह सेल्फी.. बैठे हैं ऐसे ना समझ बन कर अपनी जान से भी प्यार नहीं करते वह यह सेल्फी के चक्कर.....मे कैसी सेल्फी? ट्रेन में चढते-चढते टाइम सेल्फी.. पानी में तैरते टाइम सेल्फी.. बिल्डिंग की छत पर खड़े रहकर भी सेल्फी.. उफ यह सेल्फी.. पॉज देने के चक्कर में फ्रेम पर लटकाने की बारी आती है ऐसी सेल्फी किस काम की।

- किरण हटवार कहती हैं कि आजकल सेल्फी का प्रचलन बहुत है। कही घूमने जाओं तो ग्रुप का फोटो सेल्फी से लिया जाता है ताकि कोई भी छूते ना। सिंगल सेल्फी जो लेते है मस्ती मे वो अलग अलग प्रकार के मूँह बनाकर लेते है।कई  घटनाएँ  सुनने  को मिलती है कि  सेल्फी लेते लेते पानी में कोई बह गया। जहाँ खतरा हो वहाँ जाकर बहादुरी दिखाना और सेल्फी खींचना अच्छी बात नहीं है।एक भी जान जाती है तो पुरा परिवार दुःख  भोगता है। 

- निशा चतुर्वेदी के विचार में सेल्फी का जुनून देख देख कर मेरी तो हृदयगति ही थम जाती है।आये दिन की घटनाएं समाचारों की सुर्खियों में पढ़ देख कर कलेजा मुंह को आ जाता है। व्यवसाय से चिकित्सक हूं नहीं सर्जरी कर पाती नहीं ।इस सेल्फी के जुनून में खिलते महकते युगल मौत से गलबहियां करते काल के गाल में समाते हुए दिखे हैं। ये युग ही प्रदर्शन का है। घर हो या बाहर आमस्थान अथवा एकान्त जहां देखो वहीं सेल्फी में लगे हैं भेंड़चाल हो गई है। इस विज्ञान की दुनियां में मानसिक विकास की चरम सीमा जिसमें सब होश खोये से सेल्फी में लगे हैं। 

- कविता कौशिक विचार में “सेल्फी” एक फोटोग्राफ होता है। जो किसी व्यक्ति ने स्वंय अपने कैमरा या स्मार्ट फोन से लिया होता है। यह शब्द “सेल्फ" और “फोटोग्राफ" का मिश्रण होता है। और सेल्फी खींचकर लोकप्रियता को हासिल करना आज की नयी पीढ़ी का जुनून है। सेल्फी व्यक्ति के पर्सनैलिटी और मूड तथा उनके महत्वपूर्ण क्षणो को दर्शाती है। अत्यधिक सेल्फी लेना पागलपन कहलाता है। और सही तरीके से ली गई सेल्फी और सही समय पर ली गई सेल्फी फोटो अपना फोटोग्राफर का खर्च बचाती है। सेल्फी से लोग अपने पर्सनल क्षणो का आनंद  लेते है। सेल्फी यदि एहतियात बरतकर ली जाए तो सुंदर और बहुत ही आनंददायक है और यदि  उस चीज  को  मजाक  मस्ती में ली गई तो घातक है। 

- रेखा पाण्डेय के अनुसार आज कल सेल्फी का प्रचलन कुछ अधिक ही बढ गया है। पहले हमें फोटोज के लिए कैमरा अलग से रखना पड़ता था। पर अभी मोबाइल में कैमरा रहने से कभी भी कहीं भी फोटो निकाली जा सकती है। हम खुद ही अपनी सेल्फी भी निकाल लेते हैं। इसी तरह खुद की फोटो लेते समय हमारे साथ कई बार ख्याल न रखने पर दुर्घटना भी हो सकती है।

अंत में संस्था अध्यक्षा रति चौबे ने सभी के विचारों को सराहते हुए आज के इस ज्वलंत विषय के लिये सुषमा अग्रवाल की भी प्रशंसा कर अपने विचार प्रकट करते हुए "कहा कि वास्तव में आज आधुनिकता की दौड़ में यदि हम सैल्फी दौड़ को प्रथम कहे तो गलत ना होगा, आज के मौसम ने ऐसी करवट बदली है कि विभिन्न्ताओं की खुशबू मे और भारतीय संसंकृतियों में ये सेल्फी ने बाजी मार ली है। आज जितनी उर्जाएं नवयुवक, युवतियां, बच्चें, बुजुर्ग किसी अन्य रचनातमक व देशहित के कार्यो में लगायें तो अनायास दुर्घटनायें टल सकती हैं, पर आज की पीढ़ी जनवादी कम व्यक्तिवादी अधिक हो गये हैं जो विचारणीय  विषय है
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