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जीवन की एकरसता और जड़ता को तोड़ते हैं हमारे पर्व और त्यौहार - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा


राष्ट्रीय संगोष्ठी में हुआ रंगत खोते हमारे सामाजिक त्यौहार पर सार्थक मंथन  

मानव सभ्यता की अविराम यात्रा के मध्य पर्व और त्यौहार हजारों वर्षों से जीवन की एकरसता और जड़ता को तोड़ते आ रहे हैं। भारतीय व्रत, पर्व और उत्सवों में ऋतु, प्रकृति, ज्ञान - विज्ञान और मनोभावों का सुंदर समन्वय हुआ है। पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव, बढ़ते व्यक्तिवाद और आत्महीनता के कारण त्यौहार से विमुखता अनेक संकट उपस्थित कर रही है। हमारे त्यौहार सामाजिक समरसता और भावात्मक एकता को आधार देते आ रहे हैं। कई पर्व और त्योहारों में जीवन की लौकिकता का आध्यात्मिकता के साथ सामंजस्य दिखाई देता है। उक्त विचार राष्ट्रीय संगोष्ठी के मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने व्यक्त किए। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज द्वारा आयोजित 207 वीं राष्ट्रीय संगोष्ठी का विषय था ”रंगत खोते हमारे सामाजिक त्यौहार।

विशिष्ट वक्ता के रूप में इंदौर, मध्य प्रदेश से उपस्थित डा अर्चना चतुर्वेदी ने कहा- रंगत खोते  त्यौहारों का मूल कारण बाजारवाद है। आपसी भाईचारा और प्रेम कम होता जा रहा है,  दिखावा और आडंबर बढ़ता जा रहा है। जहां पहले त्यौहार पारिवारिक संबंध और प्रेम को बढ़ाने का कारण होते थे, वहीं अब ये औपचारिक होते जा रहे हैं। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में हर आदमी इतना तेज भाग रहा है कि ना तो उसके पास समय है और ना ही पारिवारिक संबंधों को निभाने की इच्छा। सभी सोशल मीडिया पर शुभकामनाएं व्यक्त कर अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर लेते हैं ना पहले जैसे प्रेम भावना रही है नाही भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव।

वक्ता के रुप में उपस्थित प्रो0 डा सुमा टी.आर., विभागाध्यक्ष-हिन्दी, मंगलुरु विश्वविद्यालय कालेज, मंगलुरु, कर्नाटक ने कहा आज की जिन्दगी मशीनी जिन्दगी बन गई है। उनका सारा जीवन भाग दौड़ में ही बीत जाता है। वीरान सी बनती जा रही, इस जिन्दगी में हमारे त्यौहार या पर्व ही उल्लास के साथ ताजगी भरे पल लाते हैं। ये त्यौहार विभिन्न जन समुदायों की सामाजिक, मान्यताओं, परम्पराओं और पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं।

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे किशोर न्यायालय, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश के सदस्य श्री ओमप्रकाश त्रिपाठी ने कहा  ”हमारा देश भारत, पर्वों त्योहारों का देश हैस लगभग प्रत्येक माह में कोई न कोई पर्व जो ऋतुओं से या फसलों से संबंधित होते हैं हमारे देश में सदा से मनाए जाते रहे हैं, सामाजिक त्योहार, सांस्कृतिक त्यौहार, आध्यात्मिक त्यौहार तथा महान व्यक्तित्व के जीवन पर आधारित पर्व और त्योहार हमारे देश में मनाए जाते हैं। आज भौतिक युग में जब अर्थ की  प्रतियोगिता हो रही है हम सब नए-नए पर्व त्यौहार की ओर मुड़ते जा रहे हैं, भारत के अतीत के पर्व त्योहार को भूल कर हम सब पाश्चात्य सभ्यता से पूर्ण तथा मानवता और राष्ट्रीयता से बहुत अलग पर्व त्यौहार मनाने पर तुले हुए हैं जो गंभीर चिंतन का विषय है। 

हम अपनी संस्कृति को क्यों भूलें इस पर चिंतन जरूरी है। सोशल मीडिया पर प्रसारित किए जाने वाले संदेशों के भ्रम में हम भटक रहे हैं जिससे रंगत खोते हुए हमारे सामाजिक त्योहार भटकाव की परिधि में घिर गए हैं। पर्व त्यौहार हमें आत्मीय बनाकर मानवता और राष्ट्रीयता को अखंडता की ओर ले जाते हैं किंतु आज हमारी दशा बदली हुई है। अतः सोच  को बदलिए सितारे बदल जाएंगे, नजर को बदलिए नजारे बदल जाएंगे।

प्रस्तावना डॉ. गोकुलेश्वर द्विवेदी, सचिव, विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज ने प्रस्तुत की। कार्यक्रम की संयोजक डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, छत्तीसगढ़ प्रभारी रही|
कार्यक्रम का सुंदर संचालन श्रीमती रजनी प्रभा, पटना बिहार, सरस्वती वंदना डा. कृष्णा मणिश्री, मैसूर, कर्नाटक, स्वागत उद्बोधन लोमेश कुमार साहू, रायपुर छत्तीसगढ़ तथा आभार सुश्री नम्रता ध्रुव, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने व्यक्त किया। गोष्ठी में श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव, जयवीर सिंह, रतिराम गढ़ेवाल, सविता करकेरा, दीक्षिता आदि उपस्थित रहीं
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