अपने समय और समाज की धड़कन है साहित्य -प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव
https://www.zeromilepress.com/2024/07/blog-post_21.html
नागपुर। साहित्य की सर्जना के लिए लेखक के सामाजिक सरोकारों का वृहद होना पहली कसौटी है। जो लेखक अपने समय और समाज को जितनी गहराई से और जितनी सूक्ष्मता से समझता- पकड़ता है, उसकी रचना उतनी ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण सिद्ध होती है। साहित्य से यह अपेक्षा होती है कि वह न केवल समय का मूल्यांकन करे बल्कि समय और समाज को समझने का एक दृष्टिकोण भी विकसित करे। यह बात वरिष्ठ कवि -आलोचक, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोफेसर जितेंद्र श्रीवास्तव ने कही। वे हिन्दी विभाग, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विशिष्ट व्याख्यान में बोल रहे थे। हमारा समय, समाज और साहित्य विषय पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि हर दौर का साहित्य अपने समय और समाज का दस्तावेज होता है, उसकी गवाही पर उस समय और समाज की धड़कन को सुना जा सकता है।
प्रोफेसर श्रीवास्तव ने कहा कि श्रेष्ठ और सार्थक सृजन के लिए कोई भी समय कभी अनुकूल या प्रतिकूल नहीं होता। वास्तव में प्रतिकूल समय में ही महत्वपूर्ण साहित्य रचा जाता है। दुनिया का समूचा महत्वपूर्ण साहित्य इसका प्रमाण है। साहित्य परिधि की आवाज को ही समय और समाज का साक्षी मानता है। किसी भी दौर का साहित्य अपने समय और समाज के उन पक्षों को रेखांकित करता है जिन पर अन्य अनुशासनों की दृष्टि नहीं जा पाती। हमारा समय कितना भी कंटकाकीर्ण हो, चाहे जैसी भी विसंगतियां हों, उसके प्रति समाज को स्वस्थ दृष्टि प्रदान करना साहित्य का मूलभूत कार्य है।
प्रस्तावित रखते हुए हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मनोज पांडे ने कहा कि साहित्य का कार्य पाठक के विवेक को जागृत करना है। समाज को जागरूक बनाना है। श्रेष्ठ साहित्य अपने समय को रेखांकित नहीं करता, बल्कि अपने समय का अतिक्रमण करते हुए सामाजिक बदलाव और चिंतन की पृष्ठभूमि तैयार करता है। साहित्य अपने समय और समाज का दरोगा नहीं, बल्कि शुभचिंतक होता है।
चर्चा में भाग लेते हुए वी एन आई टी के राजभाषा अधिकारी एस.पी. सिंह ने कहा कि साहित्य को एक सामाजिक माध्यम के तौर पर देखना चाहिए। हिन्दी विभाग के सहयोगी प्राध्यापक डॉ. संतोष गिरहे ने साहित्य को समाज का एक विश्वसनीय माध्यम बताते हुए कहा कि महत्वपूर्ण साहित्य समय की मांग से स्वत: निर्मित होता है। आयकर विभाग के सहायक निदेशक, राजभाषा अनिल त्रिपाठी ने अपनी बात रखते हुए साहित्य की सामाजिक भूमिका को रेखांकित किया। डाक निदेशालय के हिंदी अधिकारी तेजवीर सिंह ने सामाजिक विसंगतियों को साहित्य की चिंता का विषय बताया। डॉ. लखेश्वर चंद्रवंशी ने साहित्यकार के दायित्व को रेखांकित किया। डॉ. सुमित सिंह ने संचालन करते हुए आज के साहित्य की स्थिति पर प्रकाश डाला। इस अवसर पर प्रा. जागृति सिंह, प्रा.अनुश्री सिन्हा, प्रा. दामोदर द्विवेदी, प्रा. विनय उपाध्याय, ज्ञानेश्वर भेलकर सहित अनेक शोधार्थी, विद्यार्थी उपस्थित थे।