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सिकलसेल के प्रति जागरूकता आवश्यक : डॉ. विंकी रूघवानी


19 जून विश्व सिकलसेल दिवस

सिकलसेल बीमारी की गंभीरता एवं मरीजों की बढ़ती संख्या को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा “सिकलसेल मुक्त भारत” योजना की शुरूवात की गई है। इस योजना के अंतर्गत लाखों परिवारों की सिकलसेल जॉच की जा चुकी है। डॉ. विंकी रुघवानी, अध्यक्ष थैलेसीमिया एंड सिकलसेल सोसाइटी ऑफ इंडिया और प्रशासक, महाराष्ट्र मेडिकल काउंसिल ने कहा कि, सिकलसेल रोग को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम के रूप में विश्वविद्यालय के किसी भी स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने वाले प्रत्येक छात्र का सिकलसेल के लिए परीक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए। 

हाल ही में संकल्प इंडिया फाउंडेशन की मदद से थैलेसीमिया एंड सिकलसेल सोसाइटी ऑफ इंडिया ने महाराष्ट्र राज्य के कई वैद्यकीय महाविद्यालय व शासकीय अस्पतालों में एक परियोजना शुरू की है, जिसके तहत गर्भावस्था के पहले तिमाही में सभी गर्भवती महिलाओं का एचपीएलसी परीक्षण किया जाता है। जो महिला थैलेसीमिया माइनर या सिकलसेल ट्रेट के लिए पॉजिटिव पाई जाती हैं, उसके जीवनसाथी का भी परीक्षण किया जाता है। यदि पति और पत्नी दोनों पॉजिटिव हैं तो 12 सप्ताह की गर्भावस्था में सीवीएस परीक्षण की सलाह दी जाती है, जिससे थैलेसीमिया मेजर और सिकलसेल रोग से पीड़ित बच्चे के जन्म को रोका जा सकता है। 

विदर्भ के सभी जिल्हों मे यह परियोजना सुरु की जा चुकी है, और आगे राज्य के सभी जिल्हों में करने की प्रक्रिया जारी है, ऐसी जानकारी डॉ. रूघवानी ने दी। पिछले कुछ वर्षों से सिकलसेल रोग को विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2017 की सूची में शामिल किया गया है। इस बीमारी को विकलांगता सूची में शामिल करने से इस बीमारी से पीड़ित बच्चों को शिक्षा में आरक्षण मिलता है। हाल ही में विकलांगता प्रमाणपत्र अधिनियम में कई सुधार किए गए है, जिसके अनुसार सभी सिकलसेल पीड़ितों को दिव्यांग प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा।

डॉ. विंकी रुघवानी ने इस बीमारी की जानकारी देते हुए कहा कि, सिकलसेल एक अनुवांशिक और गंभीर बीमारी है। यह अनुवांशिक रोग बौद्ध, तेली, महार, कुनबी और आदिवासी समुदाय में अधिक है। आमतौर पर यह रोग लगभग सभी समुदायों में किसी न किसी हद तक पाया जाता है। इस बीमारी से पीड़ित लोग देश के कुछ हिस्सों में अधिक है। विदर्भ ऐसी ही एक जगह है। सिकलसेल रोग से पीड़ित रोगी को हाथ-पैर, पेट और पूरे शरीर में बार-बार दर्द होता है। बदन दर्द के लिए इन मरीजों को कई बार अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता है। हीमोग्लोबिन का स्तर कम होने के कारण मरीजों को कभी-कभी रक्त चढ़ाना पड़ता है। इन रोगियों को जीवन भर हाइड्रोक्सीयूरिया, फोलिक एसिड और अन्य दवाएं लेनी पड़ती हैं। उन्हें अक्सर रक्त परीक्षण, सोनोग्राफी आदि से भी गुजरना पड़ता है। 

उम्र बढ़ने के साथ, रोगी रोग की जटिलताओं से पीड़ित होते हैं। सिकलसेल रोग का स्थायी इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन है जिसकी लागत लगभग 14 से 15 लाख है। बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन के लिए एचएलए मैच करवाना भी मुश्किल काम होता है और प्रक्रिया बहुत जोखिम भरी है। उन्होंने बचाव का जिक्र करते हुए कहा कि अगर सही तरीका अपनाया जाए तो इस बीमारी पर पूरी तरह से काबू पाया जा सकता है। यह रोग पूरी तरह से रोके जाने योग्य है। सिकलसेल रोग (एसएस पैटर्न) के बच्चे का जन्म तभी होता है जब उसके माता-पिता दोनों में सिकलसेल ट्रेट हो । सिकलसेल ट्रेट वाले व्यक्ति बिल्कुल सामान्य होते हैं। जब सिकलसेल ट्रेट वाले लड़के का विवाह सिकलसेल ट्रेट वाले लड़की से होता है तो सिकलसेल रोग वाले बच्चे के जन्म होने की संभावना होती है। इसलिए शादी से पहले लड़के और लड़कियों के लिए सिकलसेल का परीक्षण करवाना आवश्यक है। यह परीक्षण इस बीमारी को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है।

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