कई जन्मों के पुण्य से जन्म लेते हैं तपस्वी राजनेता
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आज मैं महात्मा नरेंद्र मोदी का पौराणिक, शास्त्रोक्त दृष्टि से विश्लेषण कर रहा हूँ. आर्यावर्त राजनीतिक अविष्कारों की भूमि है और यहाँ के सभी शास्त्र राजाओं के इतिहास व राजनीतिक सिद्धातों के ग्रंथ हैं. इनमें सबसे बड़ा राजनीतिक ग्रंथ श्रीमद् वाल्मीकि रामायण है. मनुस्मृति, अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथ भी राजा को आदेश देने वाले ग्रंथ हैं. सनातन संस्कृति में राजा धर्म का मूल संस्थापक और संचालक है. राजा के बिना धर्म की स्थापना नहीं हो सकती. यहाँ राजा से तात्पर्य भारत के प्रधानमंत्री से है, जो राजा के पद पर होने के साथ-साथ जितेन्द्रिय के गुण धारण भी धारण करते हैं.
आध्यात्मिक दृष्टि से जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार प्रारब्ध निर्माण होता है. प्रारब्ध के अनुसार जीव उपयुक्त समय व स्थान पर जन्म लेता है और उसके अनुसार उसकी ग्रह दशाएँ होती हैं. अर्थात कर्म के अनुसार प्रारब्ध, प्रारब्ध के अनुसार ग्रहदशाएँ और ग्रह दशाओं के अनुसार जीवन बनता है.
अपने पूर्व जन्मकृत कर्मफल के अनुसार ही नरेंद्र मोदी एक कठोर तपस्वी हैं और बार-बार उनका मन अध्यात्म व तपस्या की ओर जाता है. मन से वह एक उदासीन संन्यासी हैं. इसीलिए बार-बार ध्यान व तपस्या के अवसर तलाशते रहते हैं. वे अल्प, सात्विक और साधारण भोजन करते हैं. प्रारब्धवश उन्होंने अपनी युवावस्था का बहुत सारा समय घूम-घूम कर और मांगकर खाकर बिताया है. निश्चित ही पूर्व जन्मकृत कारणों से उनकी युवावस्था में भटकाव रहा है और इस भटकाव से उनका जीवन के प्रति मोह नहीं है. यही कारण है कि उनके मन में ममता (यह मेरा है) की भावना समाप्त हो चुकी है.
गुजरात राज्य का वातावरण अनेक संतों के जन्मों के कारण पहले ही आध्यात्ममय है. यहाँ पैदा होने वाले संवेदनशील लोग अपने हृदय में संतभाव लिए होते हैं. जब मोह-ममता समाप्त हो जाए तो ऐसे उदासीन मनोभाव में संतत्व का जन्म होता है. एक संत के पास अपना कुछ नहीं है. जो है, वह बाहरी आवरण है. बाहरी सुख-दुख से ऊपर उठकर जीना, यही स्थितप्रज्ञता है, जिसे श्रीमद् भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के सम्मुख प्रतिपादित किया है. यह स्थित प्रज्ञता प्रतिदिन का एक अभ्यास है. जब मन में वैराग्य व उदासीनता आ जाए तो ध्यान या स्थित प्रज्ञता शीघ्र प्राप्त होती है. इस अभ्यास में वैरागी नरेंद्र मोदी सिद्ध हो चुके हैं. इसी अभ्यास के कारण वे निंदा और स्तुति को समान भाव से स्वीकार करते हैं. निंदा और आरोप एक सज्जन पुरुष को वैराग्य से जोड़े रखते हैं. यही वैराग्य भाव उन्हें सेवक भाव से संतृप्त रखता है.
आर्यावर्त के राजनीतिक इतिहास में श्रीराम एक स्थितप्रज्ञ राजा थे. वनवास के समय उन्होंने माता कैकेयी से कहा था "नाहमर्थ परोदेवी... ऋषिभि: तुल्यम विमलं धर्मम आश्रितम" अर्थात माता मैं इस संसार में संपत्ति एकत्र करने नहीं आया हूँ, अपितु मैंने ऋषियों के समान धर्म का आश्रय ले रखा है. भगवान श्रीराम ने अपनी प्रिय पत्नी सीता के बिना भी हजारों वर्षों तक कुशलता पूर्वक शासन किया. राजनीतिक दृष्टि से किसी भी राजा का वैरागी अथवा विलासी होना उसका व्यक्तिगत स्वभाव है. किंतु असली महत्वपूर्ण उसका शासन में दक्ष होना है. दुष्टों का कठोरता और छल से दमन करना राजा का कर्तव्य है. शत्रुपक्ष के सज्जनों को बचाते हुए कमजोर बनाए रखना एक रणनीतिक कुशलता है. इस दृष्टि से भी नरेंद्र मोदी अपने अन्य पूर्व शासनकर्ताओं से आगे हैं.
भारत के राजनीतिक इतिहास में पूरे भारतवर्ष पर शासन करना बड़ी बात रही है. संन्यास भाव के साथ राजा के रूप में शासन करना एक साधारण बात नहीं है. यह उनके कई जन्मों का संचय है. एक पुण्यात्मा जीव ही ऐसा पराक्रम कर सकता है. ऐसे निष्कलंक राजा को शास्रों ने बारम्बार अनघ, महात्मा, पुण्यात्मा नाम से संबोधित किया है. भारतभूमि में बार-बार ऐसे परमार्थी पैदा होते रहेंगे.
ॐ असतो मा सदगमय
- आर्य पं. राघवेन्द्र शास्त्री
धर्मवेत्ता व वरिष्ठ पत्रकार