हम मनुष्य नित्य करें ब्रम्हयज्ञ..
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ब्रम्ह यज्ञ रोज करना चाहिये. ब्रम्ह क्या है? ज्ञान ही ब्रम्ह है. ज्ञान क्या है?... जो ज्ञेय है उसकी जानना ही ज्ञान है. ज्ञेय क्या है?... जिसे मैं नहीं जानता वह ज्ञेय है... मैं किसे नहीं जानता?... जो मुझे नहीं दिखाई, सुनाई देता, जिसे मैं नहीं छू सकता.... पर जो दिखाई- सुनाई- स्पर्श का अनुभव कराता है, इन सबके पीछे कौन है,.. इन सबका कारण क्या है, उसे जानना है... क्यों जानना है?.... क्योंकि मैं जिज्ञासु हूँ... मैं क्यों जिज्ञासु हूँ ... क्योंकि मैं चैतन्य हूँ.....मैं चैतन्य क्यों हूँ... क्योंकि मैं मनुष्य हूँ... मैं मनुष्य क्यों हूँ? क्योंकि किसी ने मुझे इस मनुष्य शरीर के रूप में जन्म दे दिया है..... मुझे मनुष्य रूप में जन्म क्यों दिया? क्योंकि वे वासनामय प्रकृति के वशीभूत थे... वासना क्या है? .. वासना प्रकृति है... प्रकृति क्या है?... प्रकृति एक व्यवस्था है.... यह व्यवस्था किसने बनाई? यह व्यवस्था "उस" ने बनाई... वह कौन है..…वही तो मुझे जानना है..
मैं एक सोचने वाला प्राणी हूँ. अन्य पशु-पक्षियों को भोजन ढूंढते-ढूंढते सुबह से रात हो जाती है, बचे समय में पानी पीना है, मैथुन करना है, रात्रि होते ही सोने का आश्रय ढूंढना है, कोई मुझे मारकर न खा ले यह डर है. अपनी वासना शांत करने किसी मादा को खोजना है, मादा हूँ तो अपने अंडे या बच्चों की देखरेख करना है.
परंतु मनुष्य इस सृष्टि में एक अलग विशेष प्राणी है. मनुष्य की चुनौतियां अन्य पशु-पक्षियों, सरीसृपों से भिन्न हैं. मनुष्य एक चैतन्य प्राणी है इसलिए मनुष्य के दैनिक कार्य चेतना से जुड़े हैं. मानव समाज के व्यवस्थित नागरिक जीवन में शारीरिक भय, भूख-प्यास नहीं हैं, परंतु चेतना संतुष्ट नहीं है. चेतना मन में है, मन खाली है. यही समस्या है. तो मन को संतुष्ट करने के तीन उपाय हैं. मनोरंजन, व्यसन और ज्ञान अध्ययन. मनोरंजन मन का राजसिक आहार है. इसमें गीत, संगीत, वाद्य, फिल्में, नाटक, पर्यटन आदि आते हैं. ये मानव समाज में स्वीकार योग्य हैं. ये सामान्य मनुष्य के लिए बहुत उत्तम हैं, परंतु एक समय बाद ये भी उबाऊ हो जाते हैं. ये मान को रमाते हैं परंतु आध्यात्मिक ज्ञान का मार्ग यहाँ से होकर नहीं जाता.
व्यसनकारक वस्तुएँ अर्थात नशा मन के तामसिक आहार हैं. नशा मन को सुस्त, अचेतन, निष्क्रिय और विकृत बनाने वाला है. इसलिए अज्ञानी या दुष्प्रेरित लोग व्यसन में फंस जाते हैं और जीवन भर नहीं निकल पाते हैं. इसलिए ये स्पर्श योग्य भी नहीं हैं.
तो फिर मन का श्रेष्ठ सात्विक आहार है स्वाध्याय. अर्थात ज्ञानमय ग्रंथों का अध्ययन, श्रवण, मनन, चिंतन. मनुष्य पशु की अपेक्षा बहुत कम परिश्रम से शारीरिक आहार कर लेता है परंतु मैन शांत नहीं रहता. भूखा मन कभी मनोरंजन की ओर भागता है तो कभी नशे की ओर. फिर कभी निराश हो जाता है. इसलिए मनुष्य को प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये. स्वाध्याय का अर्थ अध्ययन करना या पढ़ना है परंतु यह सामान्य यह पढ़ाई सिर्फ एक मनोरंजन न होकर मन को ज्ञान से प्रकाशित करने वाली पढ़ाई है जैसे वेद, उपनिषद, श्रीमद् भगवद्गीता, रामायण, महाभारत, पुराणें, स्मृतियाँ, कहानियां, गीत, संगीत शास्त्र, वास्तु, ज्योतिष, वैद्यकीय, संहिताएँ, महापुरुषों के जीवन चरित्र आदि- आदि और इन्हीं ग्रंथों का कहीं प्रवचन हो, उसे सुनना आदि. इन ज्ञान ग्रंथों को पढ़ना और पढ़कर सुनाना दोनों ही ब्रम्हयज्ञ हैं. श्रीमद् वाल्मीकि रामायण का प्रथम श्लोक है "तप स्वाध्याय निरतम्" अर्थात प्राचीनकाल में ऋषिगण प्रतिदिन तपस्या और स्वाध्याय में व्यस्त रहा करते थे. प्रतिदिन के स्वाध्याय, श्रवण, मनन और चिंतन से मनुष्य के ज्ञान चक्षु खुलने लगते हैं और वह प्रकृति, परमात्मा व स्वयं को जानने योग्य बनता है. इसीलिए मनुष्य को नित्य ब्रम्हयज्ञ, अर्थात ज्ञान यज्ञ, अर्थात स्वाध्याय, सद्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये. इससे मनुष्य जीवन सार्थक बनता है.
ॐ तत्सत
- आर्य पं. राघवेन्द्र शास्त्री
धर्मवेत्ता व वरिष्ठ पत्रकार