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बेसब्र


समय धारा बहती जा रही, 
सब्र और नहीं, 
इंतज़ार और नहीं।
 
जिन्हें भूलना था
वे भूल चुके,
जिन्हें खोना था 
वो खो चुके,
जो पाना था 
वो पा चुके, 
इंतज़ार और नहीं, 
सब्र और नहीं।

सब्र की भी होती है हद,
सहने की होती है  सीमा, 
सदियों सहते रहे, 
झेलते रहे पीड़ा
अपमान के घूंट रहे पीते, 
अब जाग जाओ तो अच्छा।

ये घुंघट
ये बुरखे 
रोक चुके बहुत 
अब तक, 
इन्हें उतार फेंको 
तो अच्छा।

सुना है 
समय करवट लेता है,
रात ढल दिन आता है,
अब न छोड़ो 
किस्मत पे सब कुछ,
ना करो समय के 
बदलने का इंतज़ार,
आज ही वक्त है, 
यही वो दिन है, 
आज ही बाजी 
पलटेगी राही।

नहीं, अब नहीं 
और इंतज़ार,
सब्र हुआ ख़त्म, 
नहीं,और नहीं इंतज़ार,
बेसब्र साथी मेरे, 
और नहीं इंतज़ार।


- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव'

   नागपुर (महाराष्ट्र)
काव्य 7800911535213176843
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