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माँ की पाती बेटी के नाम


रोम्या, तेरे लिए नाम के अलावा क्या संबोधन दूँ क्योंकि आप मेरी बेटी,बहन,सहेली,सखा, दुश्मन व कभी कभी मेरी माँ बन जाती हो।जिस दिन तेरी जैसी परी जिंदगी में आयी तब से परी माँ के पंखों में कुछ नये रंग भर गए हैं। यूँ तो माँ के लिए हर बच्चा प्यारा होता है पर बेटी नन्ही पायलों की रूनझुन के साथ असंख्य ध्वनियाँ घरभर में भर देती हैं। माँ बेटी का रिश्ता ईश निर्मित सब रिश्तों से सुंदर, सहज और चुनौतीपूर्ण  है। कुछ ही सालों में दोनों एक दूसरे की छाया बन जाती हैं।नन्ही बिटिया माँ की तरह साड़ी पहनकर जल्दी बड़ी हो जाना चाहती है ओर माँ नन्ही बिटिया के रूप में अपने बचपन को पुनः जी लेती है।

            रोम्या ,जिस प्रकार सूरज की किरणों के अनुरूप  ही छाया  मैं प्रतिछाया नहीं कह रही क्योंकि हर व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व होता है,तो परछाई कभी बड़ी ,कभी छोटी,कभी आगे ,कभी पीछे आ जाती है, उसी प्रकार तेरा मेरा रिश्ता है।बचपन में आप मेरे पीछे ,युवावस्था में दोनों एकदूसरे के आगे पीछे क्योंकि आप की टीन-एज व मेरी प्रौढ़ावस्था कई बार आपस में टकराए जो स्वभाविक भी है।पर सच है आप ने मेरी बातोंको सुना, समझा और एक ड़गर बनाई जिस पर माँ बेटी इतरा कर चल सकें।वैसै भी सरलता तो स्त्री के जन्म में होती ही नही है।वो तो एक जन्म में ही दुर्गा के नौ रूपों को जी लेती है।बिटिया यही इस जीवन का परमांनद भी है।

           मेरे लिए सब से कठिन था तुझे टीन एज की शारिरिक, मानसिक,भीतरी व बाहरी अद्भुत परिवर्तन, संवेदनाए जादू भरी दहलीज के अंदर बाहर की ठंडक व ताप को बताना। तब तू कभी तो खूब बोलती,कभी चुप रहती। याद है ना तब बिना शब्दों में अशलीलता, जुगुप्सा, खुलापल लाए ,जब तेरा हाथ पकड़े,मैने मासिकधर्म, संवेग, प्रेमानुभूति जिसे समझने की उम्र अभी नहीं थी ,पर जरूरत थी। आप ने भी सुना ,समझा, परखा माना व नाजुक उम्र के उस दौर से आज तक हम दोनों की राह आसान की ।रोम्या सब से अधिक ड़र पढ़ाई के नतीजों के दिनों होता था,तेरी जैसी अनुशासित ,होशियार लड़की भी परीक्षा के दिनों में चिंता मुक्त और नतीजे के दिन चेहरे पर बारह बजा कर  घूमती देख ,अजीब लगता था। सदा सर्वश्रेष्ठ परिणाम लाने वाले बच्चे भी कैसी मनोदशा से गुजरते हैं।तभी मैने  आप को हमेशा लूड़ो की साँप सीढ़ी वाला गेम याद करवाया। जहाँ निन्नानवे पर साँप है जो गोट को तीन पर ले जाता है।पर खिलाड़ी वही जो पुनः आगे बढ़े। जीत का आनंद भी हारने वाला ही जानता है। सबसे जरूरी है सद्प्रयास। असंभव में से संभव को अलग करना सिखाना ही हमारी परीक्षा है।

       पता है जब भी कोई पड़ोसी या रिश्तेदार हमे बताता कि आप की बेटी इस वक्त ,इस लड़के से हसँ हँस कर बात कर रही थीं तो मैं ही नहीं आप के पापा भी कहते ,अरे भाई  हमारी बिटिया ने तो जब से बोलना सीखा है तब से विविध भारती की तरह दिनचर्या का सीधा प्रसारण करती है।आप बताकर मजा खराब मत करिए।आप इस विश्वास को कायम रखना। सब से अधिक आनंद तब मिलता है जब आप के मित्रगण भी मेरे साथ सहज हो जाते हैं ऐसी  युवाशक्ति को शाबाशी। हम उम्र दोस्त भी जरूरी है और कोशिश रही कि तथाकथित स्पेस भी मिले जो आपने मुझे सिखाया। एक ओर आप लोगों की पीढ़ी ज्ञान विज्ञान, तकनीक, मूल्यों के समंदर म़े से मोती माणक ढू़ंढ लाने म़े सक्षम है  दूसरी ओर मेरी मर्जी , वाला बिंदास  संसार ,सच कहूँ  तो तुझे देख कर तस्सल्ली होती है निर्भिक खेलना खाना पहनना और ना को ना समझना ,कहना,और दृढ़तापूर्वक परिवार की मर्यादा में रहते आप ने कभी भी मेरा सर नहीं झुकाया।

    बिटिया पुरातन और आधुनिक यह दो धाराए हर काल में रहीं।
एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को हमेशा कम समझदार ,संकुचित मानसिकता का मानती रही ,विरोध में जानबूझ कर या वर्चस्व दिखाने के लिए अनगर्ल कार्य भी  करती है । शरीर को खिलौना समझ कर  प्रयोग करती है।बस यहाँ ही लक्ष्मण रेखा जरूरी है।ड़र कर नहीं पर आवशयक ठहराव उस पल ,उस क्षण, उस घड़ी जब द्वंद चरम पर हो ,वही हमारी जीत है।यही गुण हर बेटी को साहस और सौजन्य के उच्चतम पद पर पहुँचाता है। मातृभाषा,मातृभूमि मातृत्व  का मान रखना। खूब खुश रह और रख।पत्र के इंतजार में। हमेशा की तरह कविता से अंत। 

‘नन्हीं हथेली को, 
जब माँ अपनी हथली के भीतर, 
दबा कर रखती है धीमें से, 
मन ही मन शब्दहीन प्रार्थना करती है। 
काश मैं पढ़ पाती इन लकीरों की भाषा, 
तब्दील कर लेती हर उस कटी लकीर क़, 
जो नन्ही को दर्द के बादलों  के करीब ले जाएगी, 
माँगती है शक्ति धैर्य और साहस, गुदगुदी हथेली को थामते हुए।।
ढ़ेरों आशीर्वाद - माँ ।।।

- डा.नीना छिब्बर

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