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यह कैसा दहेज


बरसों बाद मेरा पंजाब जालंधर जाना हो रहा था, मैं कोई अपनी मर्जी से वहां नहीं जा रहा था, बल्कि माता जी के बार-बार टोचने के बाद, मैंने अपना मन बनाया और जाने को राजी हुआ।
        दरअसल मेरा दम नागपुर जैसे बड़े शहर में घुट सा रहा था। मैं यहां लोगों को बस में ठूंस ठूंस कर यात्रा करते हुए, कुछ लोगों को लटकते हुए, कुछ लोगों को बस के टप पर चढ़े हुए देखकर मन को लगता था, यह कैसा विकास हो रहा है। जनसंख्या बढ़ रही है, तो उसी तरह का कोई भी साधन अभी भी उन्हें समेटने में सक्षम नहीं हुआ है। एक दम घोंटू सा वातावरण मेरे चारों तरफ फैला हुआ था।
         
मेरे मामा गांव के सरपंच भी थे और उसके साथ-साथ उनकी गांव में परचून की एक दुकान भी जो वे चलाते थे। घर पर टेलीफोन भी था, परंतु जब भी टेलीफोन करो तो कभी भी मामा जी फोन पर आकर आमने-सामने बात करने को तैयार नहीं होते थे। माता जी को उनसे बहुत उम्मीद थी। बार-बार उन्हें फोन लगाने को कहती या जाकर मिल। एक दिन मैंने माताजी से कह ही दिया कि मैं मामा जी से बहुत छोटा हूं, उन्हीं के आते हुए पैसों से आप मुझे यहां पढ़ा रही हैं। अब मैं कैसे उनसे जाकर आपकी यह समस्या रखूं कि वे कुछ ज्यादा पैसे भेजें। बेहतर हो कि आप स्वयं चली जाएं। पर वे एक न मानी और ना ही उन्होंने मेरे छोटे भाइयों को कहा की उन्हें भेजें। खैर, मुझे ही जाना पड़ा।

        पूरा 36 घंटे का सफर, एक थकावट सी लिए चल पड़ा, पता नहीं क्यों मैंने दूसरे दिन की ही शाम का वापसी का टिकट भी ले लिया था। जैसे ही मैं घर के दरवाजे पर पहुंचा, मामा जी के बच्चे याने मेरे भाई बहनों ने मुझे घेर लिया और मैं भी अपने थैले से निकाल कर जो जालंधर में खरीद ली थी मिठाई और चॉकलेट के पैकेट दे दिए। मैं यह देखकर दंग रह गया कि गांव के अंदर भी मामा जी के ठाठ बाट बहुत ही बढ़िया हैं, क्योंकि अब वहां सोफा था, दीवारें पेंट से लिपि हुई थी और छत भी आकर्षक और सजी हुई थी। आकर्षक रंग-बिरंगे लाइटों की शोभा चारों तरफ फैली  हुई थी। मैंने मामा जी के चरण स्पर्श किए तो वे बोले, "कैसे हैं सब घर पर, सब ठीक-ठाक तो है घर पर। मैं जानता हूं तुम्हारा आने का मकसद पर क्या कहूं जब से तुम्हारी मां याने मेरी बहन की शादी हुई है, उसे कुछ सुख तो मिला ही नहीं, तुम्हारे पिताजी ने भी नौकरी छोड़ दी अच्छे भले गैजेटेड ऑफीसर थे। क्या शोभा देता है, अब तुम लोगों को पालने के लिए भी मदद हमारी तरफ से चाहिए। तुम्हारी मामी कुछ कहती नहीं है, परंतु मैं सब समझता हूं, किस तरह मेरे घर के खर्चे मैं उठाता हूं। एक बंधी किस्त हर महीने भेज तो रहा हूं। और मैं कहां से लाऊं। पहले सरपंची के माध्यम से कुछ ना कुछ ऊपर की कमाई हो जाती थी और मैं भेज दिया करता था। अब तुम लोगों ने तो इसे एक जीने का साधनी बना ही लिया है और पैसा होता तो भेज नहीं देता। अब तुम भी तो बड़े हो गए हो। आगे का कॉलेज नहीं पढे तो क्या फर्क पड़ेगा। कुछ कमाओ और घर को चलाओ। आखिर तुम्हारी मां ने बहुत दुख झेले हैं। कुछ तो करना ही होगा ना तुम्हें अब। हमने तो तुम्हारा ठेका नहीं ले रखा है।’
        
         मामा जी की बातें सुनकर तन-बदन में आग सी लग गई थी। जवाब में मैं कुछ कह तो सकता था लेकिन कुछ ना कहना ही मुझे उचित लगा‌। क्योंकि हर महीने जो उनसे हमें पैसा आता था कहीं वह भी बंद ना हो जाए‌। आखिर हमारी मजबूरी थी और लगा कहीं बात अनावश्यक रूप से बिगड़ भी ना जाए। तो मैं चुप ही रहा। उन्हें टालने के लिए मैंने कहा, ‘नहीं मामा जी हम यहां कुछ फरियाद लेकर नहीं आए, माताजी बोली आगे कॉलेज जाओगे फिर कभी मौका मिले या ना मिले, जाओ मामा मामी और भाई बहनों के दर्शन करके आ जाओ। मैंने पूछा मामा जी बच्चे तो देख लिए मामी जी कहीं दिखलाई नहीं दे रही हैं। क्या मामी जी मायके गई हुई हैं, मामा जी कुछ देर खामोश रहे और बोले नहीं आ ही जाएगी, कुछ काम में लगी होगी। इतने में मामी आती दिखी, मैंने उनके चरण स्पर्श किए। उन्होंने पूछा, कैसे हो बिटवा, घर में सब ठीक-ठाक तो है ना। मैंने कहा, जी मामी जी सब ठीक-ठाक है, बस आप लोगों से मिलने की इच्छा हुई तो मैं आ गया। आप लोगों से कई बातें करनी हैं। तो मामी बोली , ‘रुको, चाय नाश्ता लाती हूं, या खाना अभी खा लो, फिर बातें करेंगे।’
         
       मैं समझ गया मामी जी या मामा जी दोनों एक दूसरे के प्रेजेंट्स में बात नहीं करना चाहते। अब मुझे खामोश रहना ही उचित लगा। थोड़ी देर बाद मैं टहलने के नाम पर बाहर निकल गया। फिर हम बच्चों के साथ खेलते -खेलते कब रात हुई, कब खाना खाया, कुछ भी पता नहीं लगा। पर मैंने महसूस किया मामा जी कुछ नाराज से हैं, बातें ही नहीं करना चाहते हैं। आखिर मैं उनका भांजा था। मामा जी की मजबूरी है, यह भी समझता था। मुझे लगा मामी जी के सामने उन्हें कुछ भी कहना उचित नहीं लग रहा होगा। अतः वे अकेले में ही शायद बोले। मैं बोला, ‘मामा जी चलो बाहर घूम कर आते हैं, गांव भी तो नहीं देखा, बहुत दिन हो गए बहुत बदल गया है। आपके सरपंची में गांव में काफी परिवर्तन दिख रहा है। खेतों में फसले लह लहा रही हैं। कहीं पर भी मुझे कच्ची सड़क नजर नहीं आई। ट्रैक्टर की आवाज मुझे चारों तरफ से आ रही थी। ट्रॉली भी देखी। गाय भैंसों के तबेले भी बड़े आकर्षक से बन गए। सोच ही रहा था गांव भारत के शहरों की तरह परिवर्तित हो रहे हैं। आखिर मामा जी आपका ही तो कमाल है।’
       
        मामा जी ने जले भुने स्वर में सुना कर कहा , ‘मैं तो बाहर नहीं जा सकता, मुझे सुबह शहर के लिए निकलना है। अपने छोटे भाई के साथ घूम आओ। सुना है तुम कथा कहानी भी लिखते हो, तुम्हें बहुत सी कहानी मिल जाएंगी। सच में तुम्हें यह भी बता दूं कि तुम जिस मकसद से मुझे बाहर ले जाना चाहते हो, वही जवाब आएगा जो मैं यहां दिया है, वहां भी वही सुनोगे।’
       मामा जी की जली कटी बातें सुनकर मेरा मन खट्टा हो रहा था। आखिर करता क्या मां का हुकुम जो था और मामा हमारे बड़े दयालु रहे हैं। अन्यथा हम छठवीं क्लास के बाद 12 वीं क्लास तक भी नहीं पढ़ पाते। क्या करता मुझे उनकी कोई भी बात बुरी नहीं लग रही थी। आखिर भारतीय संस्कृति में, सनातन परंपराओं में घर परिवार की परिभाषाएं तो हैं, पर वहां कहां लिखा है की दुर्मिल दिनों में हमेशा माता जी की तरफ से ही मदद आए। पिता की तरफ से संबंध  बिखर से क्यों जाते हैं। सोच तो बहुत रहा था, पर इनका कोई जवाब मेरे पास नहीं था। अंत में इस विषय को वहीं छोड़ में अपने छोटे भाई, जो 2 साल छोटा था, लेकर गांव घूमने निकल पड़ा।
       
        मैंने देखा गांव चमचमा रहा है। घरों पर नाम के अलंकृत बोर्ड टंगे हुए हैं, जिन पर उनके डिग्रियां आदि भी साफ - साफ दिखाई देती हैं। घूमते -घूमते गुरुद्वारे के पास पहुंचे। गुरुद्वारे में अभी भी लोगों का आना-जाना दिख रहा था। मैं भी अंदर गया साफ सुथरे कालीन से चलता हुआ गुरु ग्रंथ साहिब के सामने माथा टेका और अपने आने का मकसद मन ही मन गुरु को समर्पित किया और कहा, ‘वाहेगुरु! अब तेरी शरण में हूं, वेख की कर सकदा है।’
        
        बस वहां से निकल कर बाहर आया हम दोनों फिर टहलते- टहलते गांव की पक्की सड़कों और बहती हुई नालियां जो करीने से ढंकी हुई थी, देखता हुआ जा रहा था। ना जाने कितनी कारें गुजर रही थी। मोटर साइकिल भी दिख रही थीं। बस भी गुजर गई। बात करने पर पता लगा कि आगे वाले गांव की तरफ भी यह सड़क जाती है। जालंधर से आने वालों को इसी सड़क से उधर के कुछ गांव जो होशियारपुर के रास्ते आते हैं करीब पड़ते हैं। गांव की प्रगति बेमिसाल थी।
         रात को मामी ने दूध दिया, पूरा ग्लास भर अभी भी मुझे गांव का वह नजारा जो बचपन में देखा था, जिंदा दिखा। कब सो गया पता ही नहीं लगा।
         
        इस तरह सुबह भी हो गई चौबारे पर मोर नाचते हुए दिखे, कबूतरों की फड़फड़ाहट भी सुनी उड़ती चिड़िया को कमरे के अंदर रोशनदान गिरा छोटे भाई बहनों को उसे उडा़ते हुए भी, मच्छर जाली से देखा। मैंने दरवाजा खटखटाया और किसी ने नहीं खोला। फिर कुछ देर बाद दरवाजा खुला देखा उनके हाथ में एक चिड़िया है, जिसे वे रंगने में मस्त थे। मैंने पूछा यह सब क्या है। क्यों पक्षियों को तंग करते हो ? तो उन्होंने कहा तंग कहां कर रहे हैं, बस उसे रंग रंगा कर उड़ा देते हैं। सोचकर की कभी ना कभी यह पक्षी लौट कर आएगा या नहीं आएगा को समझने। बस एक मनोरंजन और आनंद एक साथ मिलते हैं। तब मैंने कहा, कभी कोई पक्षी रंगा हुआ वापस आया। अभी तो हमने लगभग आज 50 से 60 पक्षियों को रंग चुके हैं। परंतु एक भी वापस नहीं आया। क्यों यह कभी समझ नहीं सके। फिर भी मन कहता है एक न एक दिन तो कोई ना कोई लौटेगा। 
        
          देखा तो मामा जी शहर के लिए जा चुके थे, बच्चे भी स्कूल की तरफ जाने की तैयारी कर रहे थे। मैं भी नाश्ता कर वापसी की सोच रहा था। कह रहा था मामी जी मैं बस मिलने ही आया था, आज ही मुझे निकलना है। शाम की गाड़ी है। मामी ने सुना और बोली ए बेटवा, ‘मैं जानती हूं, कि तुम यहां किस मकसद से आए हो और तुम्हारी मजबूरियां भी जानती हूं‌। देखो अभी पढ़ाई छोड़कर काम धंधा मत करो पढ़ने में अच्छे हो इंजीनियर, डॉक्टर बन जाओ फिर अपने घर को संभाल लेना तब तक जो भी जरूरत होगी तुम मेरी छोटी बहन जो बाजू वाले गांव में ही रहती हैं। उनके फोन पर बात कर बता दिया करना। वैसे वह बैंक में काम करती है, उसके माध्यम से हर महीने मैं, मामा जी जितने पैसे भेजते थे, उतने ही और भेज दिया करूंगी‌ इसके बाद भी जरूरत हो तो उन्हें बता देना।’
          
         मैं हैरान और परेशान था, मामी तो पराई थी, वह कैसे समझ गई हमारी जरूरत है। मामा तो अपने थे वह क्यों नहीं समझे। ठीक है पिताजी ने जो काम किया नौकरी छोड़ दी और अब कुछ करने का हौसला नहीं कर पा रहे हैं । परंतु समाज सेवा करते है। कुछ पेंशन भी मिलती है पूरा का पूरा घर को देते हैं। वहां उनके मन में कहीं कोई खोट नजर नहीं आता। बस मजबूरियां जरूर दिखती हैं। होती हैं 
एक हताश व्यक्ति के मन में। यह सब बातें‌ हम हमारी माताजी तो बस इतना ही सोचते थे कि वे कहीं भी टूट कर बिखर न जाएं। मामी का यह वाक्य मुझे ऐसे लग रहा था मानो डूबती नाव को कोई किनारा से मिल गया। फिर भी मैंने कहा, ‘मामी जी, मामा जी को अच्छा नहीं लगेगा और उनके बिना हम कुछ भी नहीं।’

‘मैं मामा को अच्छी से जानती हूं । वे दिल के बहुत अच्छे हैं। उनकी भी कुछ मजबूरियां हैं, हमारे प्रति, बच्चों के प्रति, इसलिए उनको लग रहा है के तुम बड़े हो गए हो, काम करो। परंतु मेरी बहन जो आज बैंक में जो काम कर रही है, पढ़ लिखकर ही एक अच्छा जौब पाई है, और तुम सब बच्चे पढ़ाई लिखाई में बहुत होशियार हो यह मामा जी कई बार कहते हैं और बड़े उत्साह से लोगों को सुनाते भी हैं। तब मैं कैसे खामोश रहूं। आखिर मैं भी देख रही हूं। नारी की मजबूरियों को समझती हूं। मेरे पास भी जो पैसे हैं, वह तुम्हारे मामा के ही तो हैं। उन्हें संभाल कर रखती थी, अब भविष्य के लिए इन्वेस्ट कर रही हूं। आखिर जब तुम इंजीनियर बनकर अच्छी नौकरी पर लग जाओ,  तो लौटा देना या किसी और मजबूर अपने परिवार को संभालने की कोशिश करना।’

         मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े। मामी जी से जो मैं छुपाकर बात करना चाहता था, वह बिना बोले ही समझ गई थी। सोच रहा था किसी का इतना बड़ा दिल भी होता है‌‌। मैंने उनसे कहा, ‘पता नहीं क्यों मामी जी, मुझे ऐसा क्यों लग रहा है की माताजी को आज भी दहेज के रूप में पैसे मिल रहे हैं। मामा जी ने सुबह यही तो कहा था। तब मामा जी से नाराज़ जरूर हुआ था । परंतु मामी जी आपने रिश्ते नातों की जो नई परिभाषा लिखी है, वह आने वाले समय के लिए एक नया आधार बनेगी।’
         मामी जी ने मम्मी का अकाउंट नंबर लिया और छोटी मामी का फोन नंबर भी दिया और कहा, ‘जो उनसे मिलकर आ जाओ फिर भले चले जाना। कुछ दिन रहकर जाओगे तो अच्छा लगेगा।’
         
 मैंने कहा, ‘मामी जी समय की व्यवस्तता और कॉलेज के फॉर्म भरने की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। अतः मुझे तो जाना ही होगा।’
        तब उन्होंने मुझे अलग से ₹500 दिए और कहा टिकट निकाल लेना। मैंने कहा मामी जी वापसी का टिकट निकाल कर ही आया हूं। तुझे एक थप्पड़ लगाऊंगी। अरे टिकट निकाला है तो इसे संभाल कर रख लेना,  कभी काम आएंगे। चलो और जल्दी कर बैंक बंद होने से पहले मिलकर आ जा।
        
        मैं छोटे छोटे भाई के साथ दूसरे गांव गया छोटी मामी को मिला। उनके चरण स्पर्श किए और मामी का संदेश दिया। वे बड़ी खुश हुईं। बोली, ‘हमारे तरफ तुम पहले इंजीनियर, डॉक्टर होगे, अगर उसमें पास हो जाओगे।’
          तो मैं बदलती नारी के कई स्वरूपों को देखकर अचंभित था। सोच रहा था क्या नारियों द्वारा पुरुषों को बार-बार लताड़ने हुए कई पीढ़ियां गुजर गई तो वे आज संकुचित मानसिकता के बन गए हैं और नारियां उदार होकर सामने खड़ी हैं। 
          
            यह दृश्य बहुत अद्भुत था और प्यार पाकर वहां से लौट कर मामी से मिला। नाश्ता किया और जालंधर की तरफ निकल पड़ा। आखिर रात 8:00 बजे की जो ट्रेन थी। अब मेरा मन उत्साह से भरा और उत्साहित था। तभी मामा जी आते हुए दिखे और बोले, ‘जा रहा है, जा कुछ काम धंधा कर और परिवार को संभाल, और अपने पिताजी को कहना हमने अपनी बहन बयाही थी और जो कुछ बना था उसी समय हमने दिया भी था। अब क्या जिंदगी भर हमें दहेज देना होगा। कब तक खुद में स्वयं को सक्षम नहीं करेंगे। क्यों इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर मजबूर हो गए। कुछ तो करें। मुझे तू बेटवा गलत मत सोच जब तक सरपंची में कुछ कमाई हो जाती थी, मुझे भेजने में सुविधा होती थी अब जो दुकान से और पैसे मिल जाते हैं, उसी में से तुम लोगों के लिए भेजता हूं। घर के भी खर्चे बढ़ रहे हैं। उन्हें भी पूरा करना होता है। अतः मजबूरी सी आन पड़ी है। बेटा जिंदगी को कहीं ना कहीं रुक कर खड़े होना होता है। हर व्यक्ति की जिंदगी में करिश्मा नहीं होता। कर्म को ही महत्व देना होता है। वरना सभी इंजीनियर डॉक्टर बन जाते या शहंशाह बन जाते। खैर खुद को संभाल, परिवार को संभाल।’
            
         मैंने मामा जी के पैर छुए उनका भी आशीर्वाद लिया। मामा जी ने ₹100 निकाल मुझे देना चाहे। मैंने मना कर दिया। अब मुझे उनकी बातें कुछ गलत नहीं लग रही थी।
             उनसे मिलकर मैं गांव में आई बस में बैठकर जालंधर के लिए चल पड़ा और सोचता रहा कितना स्वार्थी हूं मैं, मामा जी ने क्या गलत कहा कि मैं काम करूं। कोई जरूरी है कि मैं इन्जिनियरिंग करुं। तभी मुझे दर्शनशास्त्र की एक किताब याद आई जो मैंने पढ़ी थी, शायद आचार्य रजनीश की थी, की स्वार्थ कुछ भी नहीं होता अगर आपका मन साफ हो और कुछ पाने की क्षमता उसमें साफ दिखाई दे रही हो।
             
           कुछ ऐसा ही अर्थ निकलता था वे शब्द मुझे याद आ रहे थे, और कब मैं ट्रेन में बैठा और वापस नागपुर आ गया पता ही नहीं लगा। आते ही मैंने माता जी को सुबह सब सुनाया तो वे भी हैरान रह गईं। उन्होंने कहा, ‘आपने मामा जी को सब सच बता देना था।’
        मैंने कहा, ‘माताजी मामी नहीं चाहती थी की इस सच को मैं अपनी पढ़ाई पूरी होने तक किसी को भी इजहार करुं। आप जो सोच रहे हैं, माताजी हम यह सब पैसा एक न एक दिन जरूर वापस कर देंगे।’
        
            आज सेवा निवृत हुए भी कई साल हो गए। मामा जी भी नहीं रहे, मामी जी भी नहीं रहे। ना उन्होंने कभी दिए पैसों का उलाहना दिया और न वापस हमने किए। माताजी ने जरूर कई बार हमें इस बात की याद दिलाई। तो मुझे मामी की कही वह बात याद आई, ‘जब कोई अपने परिवार का कोई सदस्य दुखी हो या कष्ट में दिखे, तो उनकी मदद करना।’
           आज वर्षों बाद मामी की छोटी बहन के परिवार में अपघात होने के उपरांत उनके बच्चों का पूरा परिवार बिखर सा गया। उसमें एक छोटी बच्ची जो 14 साल की थी बची। तब लगा शायद मामी जी का अपनी बहन के द्वारा किया गया, दहेज रूपी इन्वेस्टमेंट लौटाने का वक्त आ गया है। वह छोटी बच्ची अपने चाचा के साथ होशियारपुर चली गई और तब से अनाम बनकर, मैं स्वयं को इन्वेस्टमेंट कंपनी का एजेंट बताकर उन्हें हर महीने 5000/ बतौर किस्त भेज रहा हूं।
           
अब यह सिलसिला भी चलते हुए 10 साल गुजर गए हैं। मुझे शादी का एक कार्ड आया है। उस बच्ची की कनाडा रिटर्न किसी बच्चे से शादी हो रही है। मैं अपनी पत्नी के साथ उससे मिलने पंजाब जा रहा हूं। कितना सुकून है, मैं ही जानता हूं। यह सब बातें , मेरी पत्नी को पूरी तरह मालूम हैं। क्योंकि वह अपने बच्चे और बच्ची के स्वभाव से रुष्ट हैं। क्योंकि वहां उन्हें अपना सा कोई तो नहीं दिखता है। तब से वे भी समाज सेवा, दीन दुखियों की सेवा, अनाथालयों के अंदर जाकर यतीमों के लिए, बेसहारा नारियों के लिए क्या कर सकती हैं, करती हैं। किसी से उन्हें कोई शिकायत नहीं है। उनको यह समझाता हूं की जिंदगी जब तक है। बिना किसी से कोई अपेक्षा किया जियो और जो जैसे जीना चाहता है उसे जीने दो। आखिर यही तो जिंदगी को दिए दहेज का इन्वेस्टमेंट है। जिसे ठीक से खर्च करोगे, तो सबका भला होगा। सब कुछ खोकर हाथ खोलोगे तो ठोकर ही खाओगे। किसी को कुछ भी नहीं मिलेगा। शांति और विनम्रता ही जिंदगी का अलंकार है।

- नरेंद्र सिंह परिहार 

सी 004, उत्कर्ष अनुराधा,
सिविल लाइंस, नागपुर 440 001

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