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1900 दशक से 2024 तक आते-आते विचारो में क्रांति बदलाव


यदि मैं अपने बचपन कि यादों में खोकर पुनः उन सभी अखबार की सुर्खियों को याद कर अपने ज़हन मात्र में लाती हूँ तो आज भी याद आता है की पहले दहेज प्रथा ने जैसे कोहराम मचा रखा था । हफ्ते में कम से कम तीन चार खबरें तो ऐसी सन 1900 के दशक में पढ़ने को मिल ही जाती थी। तब मॉं बाप सदैव एक ही भय और चिंता से ग्रस्त अधिक रहते थे कहीं हमारी बेटी के ब्याहने के बाद उसके साथ ना कोई ऐसा-वैसा हादसा हो जाए। इसी डर से बेटी के पैदा होने से लेकर ही उसके लिए ढ़ेर सारा धन जोड़ना शुरू कर देते थे ताकी उसके विवाह के समय एक मोटी रकम अरे हॉं भाई वही रकम वर को दी जाए जो एक प्रथा के अंतर्गत आती है। प्रथा का नाम देकर एक मोटी रकम दहेज के रूप में कन्या पक्ष से ली जाती है जानते हैं इस प्रथा के कर्तव्य को सुनिश्चित तरीके से पूरा करने के बावजूद भी बहुत सी बेटी इस दहेज़ की सूली पर चढ़ा दी जाती हैं और मां बाप सिर्फ अपने ही एक अंग के हिस्से को कटा देख अवाक रह दर्द से घिर जाते और अंत में इस दर्द भरी वेदना से निकलने के लिए कहते शायद हमारी बेटी की किस्मत में जीवन जीने का इतना ही समय लिखा था। 

क्या दहेज लोभी जो दहेज लेते हैं बेटी के साथ-साथ वो ये सोचते की वो किसी पराई की बेटी को मुफ्त में खिलाएंगे इसलिए उसी के मायके से मिले दहेज से उसका पालन करेंगे। क्या ? या मेरी नज़रों में तो ऐसे भेड़ियों की यही सोच होती ही होगी। तो आप अगर हिसाब लगाओ तो एक बेटी जो बहू बन आपके घर आई वो आप के और आप के बेटे की हर खुशी, सुविधा के लिए खुद को भूल जाती है । साथ ही यदि उसके द्वारा किये गये घर के हर एक कार्य यहां तक की आपको दिये वारिस के देखरेख का यदि मूल्यांकन करें तो वो मूल्यांकन अनगिनत होगा उसके हर एक परिवार के लिए दिये गये बलिदान का फिर भी किसी ओर के अंश को गाजे बाजे के साथ लाकर उसकी अवहेलना करना निश्चित ही किसी लालची परिवार, निराधार का ही काम होगा। सच ऐसे भेड़ियों के चेहरे पर लगे नकाब को पहले पहचान पाना असम्भव सा प्रतीत होता और जब तक प्रतीत होता तब तक या तो बहुत देर हो चुकी होती। 

अब ज़रा अपनी बेटी पराए घर भेजने वालों जरा गौर करें, आपने अपनी जिंदगी का अभिन्न अंश, या बेशकीमती हीरा आपकी बेटी को तो ब्याह कर अपनी जिम्मेदारी भी पूरी की , दहेज के नाम पर उसकी तमाम बची उम्र के लिये खर्चा पानी भी दिया उसके बावजूद बेटी ने ब्याहने के बाद अपने ससुराल या अपने घर की समस्त जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करते हुए सभी की खुशी का ध्यान रखा । उसकी हर एक निर्वहन की जिम्मेदारी की आय का आंकलन करें तो बहुत अधिक होगी तो उसी आंकलित आय के अंतर्गत उसने अपने खाने-पीने का प्रबंध भी किया। उसके बावजूद वही बेटी दहेज के सूली भी चढ़ जाती इतना कुछ करने के बाद। तो बेटी को पराया धन या बोझ समझने की गलती नहीं करें। 

जानते हैं पहले ये प्रथा का बहुत अधिक बोलबाला था कारण था बेटियों को पढ़ाई लिखाई से वंचित रख ये सोचना की पढ़ लिख के करेगी क्या आगे चलकर ससुराल में चूल्हा चौकी तो ही संभालना है। मां बाप की इसी सोच, अरे सिर्फ़ मां बाप की ही नहीं इस समाज कि ऐसी सोच ने ही 1900 दशक तक ना जाने कितनी बेटियों को लील लिया सिर्फ दहेज प्रथा के नाम पर। जब इस विष भरी प्रथा के पैर अति से महाअति की ओर बढ़ गये तब एक नारा आया बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ सच ये वो नारा था जिसने इंसान की आंखों पर लगी प्रथा की पट्टी को धीरे-धीरे खोला जागरुकता अभियान चलाए गये, रंगमंच से समझाया गया और ये भी उदाहरण दिये की फलाने ने अपनी बेटी को शिक्षित कर सशक्त बनाया तो वो आज कितनी खुश है इस तरह के अनेकों उदाहरणों से समाज में एकदम से तो नहीं परंतु जागरुकता बढ़ी और लोगों ने शिक्षा का महत्व समझते हुए अपनी बेटियों को पढ़ाना शुरू कर दिया। 

ऐसा नहीं की दहेज प्रथा आज पूर्णतः रूप से समाप्त हो गई है। परंतु पहले से की गुना सुधार इस प्रथा के अंतर्गत हुआ है अब सौ प्रतिशत का जो इस नरभक्षी प्रथा का हिस्सा था अब घट कर वह पचास प्रतिशत या उससे भी कम हो गया है । धीरे-धीरे ये पचास प्रतिशत भी जो शेष इस घिनौनी प्रथा का हिस्सा है आशा है वह पूर्णतः शुन्य हो जाएगा। बेटियां अब सशक्त हो अपने पैरों पर खड़ी हो स्वयं के लिए आय अर्जित करने में सक्षम हो रही हैं। अब बेटियों को पहले की तरह बोझ नहीं अपनी शान समझा जाता है और उनके देश के भीतर तक नहीं विदेशों तक परचम फैलाने के लिये हौसला अफजाई अपने घर, अपने जनक से मिल रही है। यही हौसला अफजाई उसके विश्वास को और भी मजबूत कर आगे बढ़ने में सहायक साबित हो रही। 

- वीना आडवाणी ‘तन्वी’

नागपुर, महाराष्ट्र

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