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ये मर्द भी बड़े अजीब होते हैं


ये मर्द भी बड़े अजीब होते हैं,
दिखाते तो खुद को बड़ा सख़्त है,
लेकिन दिल उतना ही कमज़ोर रखते हैं।
सच ये मर्द बड़े अजीब होते हैं।

छोटे से दिल में बड़ा बोझ उठाए,
सब कुछ अकेले ही सहते है।
छुपाना आता नहीं और
कोशिशें नाकाम करते हैं।
ये मर्द भी बड़े अजीब होते हैं।

महीने भर का बहीखाता,
उस पर मां की दवाई,
बच्चों की पढ़ाई,
बहन का ब्याह,
कर्जदारों के कर्जे भी चुकाने होते है,
ये मर्द भी बड़े अजीब होते हैं।

बात बात पर बहन को
ससुराल भेजने की 
धमकी देने वाले,
आज उसकी बिदाई में
छुप छुप कर रोते हैं।
ये मर्द भी न बड़े अजीब होते हैं।

कितनी लापरवाह हो तुम
कभी दवाइयां समय पर नहीं लेती,
कहने वाले उसके बीमार होने पर 
रात भर सिरहाने बैठ सर दबाते हैं।
सच में ये मर्द भी न बड़े अजीब होते हैं।

मन की बातें मन में छिपाए,
खुशमिजाजी का मुखौटा लगाए,
हर एक की उम्मीदों का आधार होते हैं,
ये मर्द भी न बड़े अजीब होते हैं।

थक गया हूं कह नहीं सकते,
रोना आए तो रो नही सकते,
दर्द ये अपना बतलाएं कैसे,
कहना हो कुछ तो सौ बार सोचते  है
सच ये मर्द  भी बड़े अजीब होते हैं।

- डॉ. तौक़ीर फातमा ‘अदा’

कटनी  (मध्य प्रदेश)
काव्य 9112147577364918888
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