Loading...

बोलने दो उसे…

 

   

जब कभी बेटियाँ यूँ ही
  बेवजह कभी धीमे, कभी जोर से
   निरंतर बोलती है असंगत लय में
    बोलने दो उसे,वो उधेड़ रही होती है
    अंदर की सारी गु़जलें और तंग दायरों को ।

     जब कभी बेटियाँ यूँ ही
     एक दिन अचानक कहती है पिता से
    आप ठीक रहना ,तो वो खोजती है संबल
    वही बचपन वाला जब ऊपर उछाल सुरक्षित
      पकड़ लेते थे हाथों में
      वो चाहती है बिन शर्त मिले वही पीठ दीवार सी।

         जब कभी बेटियाँ यूँ ही
       बेबात ही करने लगती हैं बातें
      बेस्वाद नमक, फीकी शक्कर और रंगहीन मिर्च की
    वो संकेत देना चाहती है अपने भीतर बदलती
      बेस्वाद, संवादहीन ,बेरंग,बामजा जिंदगी का
      दिन  रात अर्थहीन  चढ़ते डूबते सूरज का।
       बोलने दो उसे
       शायद घट जाए भीतर का ताप
       शायद बढ़ जाए बाहर का राग
       शायद जल जाए कोई  चिराग
       शायद  भीग जाए कोई सूखी आस
       शायद  जाग जाए फिर सोया सपन
       शायद  उठ पड़े फिर गिरा विश्वास।।

- डॉ. नीना छिब्बर
17/653 चौपासनी हाऊसिंग बोर्ड,
    जोधपुर 
काव्य 8306810094950956290
मुख्यपृष्ठ item

ADS

Popular Posts

Random Posts

3/random/post-list

Flickr Photo

3/Sports/post-list