संस्कार प्राप्ति के माध्यम के तीन स्तर हैं: मां, पिता और परिवार : डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी
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नागपुर/पुणे। संस्कार का शुभारंभ मां के गर्भ से ही प्रारंभ होता है और वही भ्रूण जाने-अनजाने में सीखता रहता है। जो जीवन मूल्य मानव की जिंदगी के आधार होते हैं, वे सभी मां के गर्भ से प्रारंभ होते हैं। पर वास्तव में मां, पिता और परिवार यह तीन संस्कार प्राप्ति के माध्यम स्तर है।
ये विचार डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी, उपाध्यक्ष, विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश तथा सदस्य, किशोर न्यायालय, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश ने व्यक्त किए। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में ‘बच्चों को संस्कार की सीख देने में किसकी भूमिका अधिक महत्वपूर्ण: मां या पिता?’ इस विषय पर आयोजित 175 वीं (25) राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी (शनिवार 15 अक्टूबर 2023) में वह विशिष्ट वक्ता के रूप में अपना उद्बोधन दे रहे थे । विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे महाराष्ट्र ने गोष्ठी की अध्यक्षता की।
डॉ त्रिपाठी ने कहा कि प्रथम मां जो किशोरावस्था तक संस्कार पूर्ण करती है। पिता, जो आकाश की भांति फैलाव का माध्यम बनता है और तीसरा माध्यम स्तर परिवार और समाज द्वारा अनेक नैतिक मूल्य अनुभूति के आधार पर प्राप्त होते हैं। कर्तव्यनिष्ठा, चरित्र,सहनशक्ति, अनुकरण का सृजनात्मक रूप सभी कुछ मां के द्वारा ही प्राप्त होता है। पिता और परिवार द्वारा प्रेम, परोपकार, गुणग्राहकता, अन्वेषात्मक प्रवृत्ति आदि का विकास होता है।
डॉ अर्चना चतुर्वेदी, विभागाध्यक्ष- हिंदी, श्री क्लॉथ मार्केट इंस्टिट्यूट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज, इंदौर, मध्य प्रदेश ने अपने वक्तव्य में कहा कि बच्चा जन्म से मां के करीब होता है। 9 महीने के पश्चात् जन्म लेने के बाद वह मां को देखकर सभी कुछ सीखता है। मां उसकी प्रथम गुरु होती है। आज के युग में माताएं अपने कर्तव्य से विचलित हो रही हैं। वह अपने करियर पर ज्यादा फोकस कर रही है। पर अगर उन्होंने मातृत्व को अपनाया है, तो उन्हें सबसे पहले बच्चे को संस्कार सीखाना चाहिए। अगर मां सही संस्कार सिखाती है, तो वह देश को एक अच्छा नागरिक देने में मदद करती है।
प्रोफेसर डॉ. प्रतिभा येरेकार,अध्यक्ष, हिंदी विभाग, लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय, धर्माबाद, नांदेड़, महाराष्ट्र ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा कि गोष्ठी का विषय अत्यंत संवेदनशील है। बच्चों के व्यक्तित्व विकास में माता और पिता दोनों के दिए संस्कारों का योगदान होता है। यही उनकी आजीवन पूंजी होती है। मां जब गर्भ धारण करती है तो वहीं से गर्भ पर मां के संस्कार शुरू हो जाते हैं। अतः बच्चे पर मां का प्रभाव अत्यधिक होता है। बच्चों के कोरे मन-मस्तिष्क पर संस्कारों के सुंदर, स्वर्ण अक्षरों को शिल्पित करने वाली मां ही शिल्पकार होती है। फिर भी बच्चा भले ही मां के साथ जुड़ा हुआ रहता हो पर वह पिता की गतिविधियों का अवलोकन करते हुए वह अपने पिता जैसा बनना चाहता है। फलत: वह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पिता से भी संस्कारित होते जाता है। इस प्रकार मां और पिता दोनों की जिम्मेदारी बच्चों को संस्कारित करती रहती है।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि भारतीय संस्कृति में षोडश संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। प्रथम संस्कार गर्भाधान से ही बच्चा संस्कारित होना आरंभ करता है।यह सत्य है कि बाल्यावस्था में बच्चे पर मां के संस्कार अधिक मात्रा में होते हैं । पर बाल्यावस्था में बच्चा अपने पिता के कंधों पर भी खेलता है। पिता का लाड प्यार पाता है। परिणामत: वह पिता से भी संस्कारित होता है। युवावस्था में वह अपने पिता के संपर्क में आता है। अत: युवावस्था में वह मां के संस्कारों की तुलना में पिता से बहुत कुछ सीखताहै। पिता से परामर्श के साथ अपने जीवन की दिशा तय करता है। तात्पर्य यह है कि अपनी युवावस्था में बालक पिता से प्रभावित होकर जीवन की सही दिशा पाने में सफल होता है। अतः संस्कार की बात करें तो बच्चा अपनी मां और पिता से संस्कारित होता है।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने अपने प्रास्तविक भाषण में संस्थान के उद्देश्यों एवं कार्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि बच्चों को संस्कार की सीख देने में सर्वोत्तम प्रथम भूमिका मां की होती है। पर पिता के संस्कार भी बच्चों को प्रगति का मार्ग दिखाने में सफल सहायक सिद्ध होते हैं। गोष्ठी का आरंभ प्रा.लक्ष्मीकांत वैष्णव,शक्ति,छत्तीसगढ़ द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से हुआ। श्रीमती सीमा रानी प्रधान महासमुंद, छत्तीसगढ ने स्वागत भाषण दिया।
इस आभासी गोष्ठी की संयोजक डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, प्रभारी, विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज की छत्तीसगढ़ इकाई तथा सह प्राध्यापक, शिक्षा मनोविज्ञान, ग्रेसियस कॉलेज, अभनपुर, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने सफल, सुंदर व अत्यंत सुचारू रूप से संचालन करते हुए कहा कि निसंदेह बच्चों पर संस्कार करने में हर मां की भूमिका अग्रणी है। पर यह भी सत्य है कि बच्चों को संस्कारित करने में मां और पिता की भागीदारी बराबरी की है। सयोजन संस्थान की उत्तर प्रदेश प्रभारी श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव,रायबरेली, उत्तर प्रदेश ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया। इस गोष्ठी में शोधार्थी रतिराम गढेवाल, रायपुर, जयवीर सिंह, पुणे, प्रा. मधु भंभानी, नागपुर, प्रो. शेहनाज शेख, नांदेड सहित अनेक गणमान्यों की गरिमामयी उपस्थिति रही।