शारदीय नवरात्र और शक्ति उपासना
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नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः॥
सृष्टि का मूलाधार शक्ति है । ब्रह्माण्ड का नियमन और संचालन करने वाली आद्या शक्ति की आराधना भारत में चार नवरात्रों में की जाती है जिसे चैत्र नवरात्र, माघ नवरात्र , वसंत नवरात्र और अश्विन शारदीय नवरात्र की संज्ञा दी गई है और इनमें अश्विन मास शरद ऋतु में आने वाला शारदीय नवरात्र अपने में विशिष्ट महत्व रखता है । जहाँ उत्तर में यह दशहरा पर्व भगवान श्रीराम के चौदह वर्ष वनवास की पूर्ति के पश्चात उनके अयोध्या वापसी के हर्षोल्लास का समारोह है वहीं पूर्व ,पश्चिम और दक्षिण भारत में देवी आराधना इन नवरात्रों में विशेष फलदायिनी मानी जाती है ।
‘देवी भागवत’ के अनुसार माता दुर्गा के प्रादुर्भाव का उद्देश्य ही ‘शिष्ट रक्षण और दुष्ट दलन’है । महिषासुर नामक दैत्य का संहार करने के कारण ‘माँ’ महिषासुर मर्दनी कहलाई। दुर्गा सप्तशती के देवी कवच में जगदम्बा देवी के नौ रूपों का वर्णन आता है जहाँ ये शक्तियाँ हाथों में शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल, मुसल, खेटक, तोमर, परशु, पाश, कुंत, और त्रिशूल धारण कर असुर शक्तियों का वध करती हुई भक्तों को अभय दान देती है । प्रतीकात्मक रूप से मन के विकारों को भस्म कर ज्ञान प्रज्ञा को ऊर्ध्व चक्र में प्रवृत्त करने हेतु शक्ति को जागृत करना ही ‘शाक्त साधना’ माना जा सकता है ।
दक्षिण में देवी नवरात्र आध्यात्मिक ऊर्जा से अनुप्राणित पर्व है जहाँ उत्पत्ति, स्थिति और लय रूपी सृष्टि चक्र का चैतन्य स्रोत पंचभूतात्मिका पराशक्ति जगदम्बा के नौ रूपों को तंत्रोक्त प्रकारेण कलश में आह्वान कर तदुपरांत मंत्रोचारण से श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषि, सप्तचिरंजीव, योगिनी, क्षेत्रपाल, अन्यान्य देवताओं की विधिवत पूजा अर्चना नैवेद्य समर्पित किया जाता है। त्रिगुणात्मिका देवी के तीन रूप दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा का विधान यहाँ इस प्रदेश में प्रचलित है।
वहीं तमिलनाडु में इन नवरात्रों पर ‘गोलु’ सजाने की एक विशिष्ट परंपरा है, जहाँ इष्ट देवताओं सहित मिट्टी की छोटी-छोटी रंगीन मूर्तियों और खिलौनों को सात सीढ़ीयों के अम्बार में सजाकर विधिवत पूजा अर्चना धूप-दीप नैवेद्य समर्पित किया जाता है । यही परंपरा आंध्र और तेलंगाना में ‘संक्राति पर्व’ पर देखने को मिल जाती है। नश्वर मूर्तियों में जगदम्बा की प्रतिष्ठा- पार्थिव उपादानों के माध्यम से अनश्वरता को साधने का प्रयास -सनातन दर्शन के गूढ़ ज्ञान को प्रतिबिम्बित करती परंपरा है “गोलु आराधना ” ।
विजय दशमी और अक्षराभ्यास :
विजय दशमी विजय का प्रतीक है । पौराणिक मान्यता है कि महाभारत काल में पाँडवों के अज्ञात वास के दौरान उन्होनें अपने आयुध शमी वृक्ष की छाल के भीतर छिपा दिए थे और फिर विजय दशमी के दिन ही उन्होनें इन आयुधों को वापस प्राप्त कर युद्ध का बिगुल बजा दिया था और अंततः दुष्ट कौरवों को परास्त कर विजयश्री को गले लगाया था। इसी कारण विजयदशमी के दिन नए कार्य का आरंभ शुभ सूचक माना जाता है। और यही एक कारण है कि नन्हे मुन्हे बालकों का अक्षराभ्यास इस दिन किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन आरंभ किए हर कार्य में सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होती है। तमिलनाडु के तिरुवारूर जिले में चेन्नई से लगभग 280 कि.मी. की दूरी पर स्थित ‘कोथनूर सरस्वती मंदिर’इस राज्य का एकमात्र ऐसा आलय है जहाँ मंदिर की मूल प्रतिमा भगवती सरस्वती की है । गाँव के नाम करण के पीछे एक ऐतिहासिक कथा प्रचलित है कि तमिल कवि ‘ओट्टुकुथन’ को चोल वंश के एक राजा ने उनकी कविताओं पर मोहित होकर यह गाँव उन्हें भेंट स्वरूप दे दिया था और तब से यह गाँव कुथानूर के नाम से प्रसिद्ध हो गया । और यह भी मान्यता है कि इस प्रदेश में ‘विद्यारंभ’ करने पर माँ सरस्वती की विशेष अनुकंपा बरसती है । हर विजयदशमी के दिन अक्षराभ्यास का समारोह यहाँ विधि-विधान से किया जाता है ।
सनातन संस्कृति में हर पर्व समय काल ऋतु गृह नक्षत्र के योग को आधार बनाकर मानव की संश्लिष्ट चेतना को ऊर्ध्व गति देने का ही सत्प्रायस है । आशा है कि यह विजयदशमी का पर्व हम सभी के जीवन को मंगलकारी बनाए, हमारी समृद्धि में वृद्धि हो और साथ-साथ हमारी आध्यात्मिक यात्रा में भी प्रगति हो ...इसी मंगलकामना से,…
सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्बिके गौरी नारायिणी नमोस्तुते
- डॉ पद्मावती,
सह -आचार्य, आसन मेमोरियल कालेज,
हिंदी विभाग, चेन्नई, तमिलनाडु