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शिक्षा एवं शिक्षक

शिक्षक दिवस पर शिक्षा के आलोक का महत्व 
शिक्षा मनुष्य के लिए उन्नती के द्वार खोलती है। शिक्षा ही मनुष्य की सभ्यता के विकास की गंगोत्री है, जिसे शिक्षक रुपी भगीरथों ने इसके आलोक को पृथ्वी से चांद तक पहुंचाया है। शिक्षक एक प्रकाश पुंज है, दीपक है, जुगनू है, जो स्वयं जलकर पूरे जगत को अपने प्रकाश से आलोकित करता है। 

हमारे पूर्व राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णनजी जो कि मूलतः एक शिक्षक थे उनके जन्मदिवस पर 'शिक्षक दिवस ' मनाने का यह संकल्प केवल उन्हें ही समर्पित नहीं है, अपितु सभी शिक्षकों (गुरुओं) के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर है। कबीरदासजी  गुरु के समर्पण में अपनी अभिव्यक्ति में कहते हैं, "गुरू गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपकी जो गोबिंद दियो बताए। 
हमारे अवतार पुरुष भगवान श्री राम ने समय समय पर गुरुओं से मार्गदर्शन लेने के प्रसंग आते हैं। उन्होने वनगमन के समय भारद्वाज ऋषी से पूछा था, नाथ मुझे मार्ग बताइए, वाल्मिकी जी से पूछा था कि, मैं सीता और लक्ष्मण के साथ वन में कहां रहूं? एवं अगस्त्य ऋषि से राक्षसों के विनाश की विधी पूछी थी। 

भगवान श्री कृष्ण भी विद्यार्जन हेतू सांदीपनी ऋषी के आश्रम में गए थे, जो गुरुओं (शिक्षकों) के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। 
एक बालक के प्रथम शिक्षक उसके माता - पिता रहते हैं जो उसे संस्कारित करते हैं, तत्पश्चात उसके जीवन का निमार्ण शिक्षक उसी तरह करता है जिस प्रकार एक कुशल कुम्हार चाक पर मिट्टी को ढालकर उसे अलग अलग आकार देता है। जरूरत पड़ने पर उसे ठोकता है, पीटता है, उसे सहलाता है एवं इस प्रकार एक सुंदर आकृति (वस्तु) का सृजन पूर्ण हो जाता है। वर्तमान में शिक्षक अनेक रूप में विद्यमान हैं - शिक्षक, गुरु, मेंटर, ट्रेनर, समुपदेशक, कोच इत्यादि। एक आदर्श शिक्षक जिन सिद्धांतों एवं सूत्रों को सिखाता है पहले उन्हें अपने भीतर उतारता है, स्वयं उस अग्नी में तपकर वैसा जीवन जीकर ही एक शक्तिशाली सामर्थवान राष्ट्र निर्माण का भागीदार होता है। 

दक्षिण अफ्रीका के एक विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर एक बोर्ड पर लिखा था कि, " किसी राष्ट्र को नष्ट करने हेतु किसी परमाणु बम अथवा मिसाइलों की आवश्यकता नहीं पड़ती, केवल उस राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली का स्तर घटा दीजिए एवं परीक्षाओं में नकल करना शुरू करवा दीजिए, कुछ वर्षों बाद ' शिक्षा का पतन - राष्ट्र के पतन ' के रूप में दृष्टिगोचर होगा।

भारत वर्ष की शिक्षा प्रणाली ही इसको ' सोने की चिड़िया ' बनाने का मूलभूत आधार थी। गुरुकुलों में छात्र शिक्षा के साथ साथ विद्यार्जन भी किया करते थे। शिक्षा शरीर पर काम करती है, जिसे हम विज्ञान (science) कहते हैं, विद्या आत्मा पर काम करती है। श्रीमद् भगवद्गीता में भी अर्जुन का विषाद मिटाने हेतु भगवान ने उसे एक मेंटर की तरह समझाते हुए क्षेत्र (शरीर) एवं क्षेत्रज्ञ (आत्मा) से परिचय करवाया। अतः हम वैज्ञानिक रूप से भी सक्षम थे (पुष्पक विमान, संजय को दिव्यदृष्टि, सूर्य की पृथ्वी से दूरी, शून्य का शोध)  एवं हमारा आत्मिक बल भी उच्चकोटी का था। 

लॉर्ड मैकाले ने यहां आनेपर हमारी गुरुकूलों का अध्ययन किया तो वह समझ गया कि यदि इस राष्ट्र को कमजोर बनाना है, इसपर लम्बे समय तक शासन करना है तो इसकी सुदृढ़ शिक्षा प्रणाली को बदलना होगा, उसने वही किया, जिसका परिणाम हम आज भुगत रहे हैं। हमने अंग्रेजी भाषा में उच्च शिक्षण प्राप्त कर लिया, डिग्रियां तो ले ली, लेकिन हमने अपने आत्मिक बल पर काम नहीं किया। परिणामतः हमारा पारिवारिक ढांचा कमजोर हो रहा है, इसे बचाए रखने की नितांत आवश्यकता है। 
वर्तमान में जिस तेजी से शिक्षा का बाजारीकरण हो रहा है, यह हमारे लिए अत्यन्त चिन्ता का विषय है। विद्यार्थी एवं पालक पर्संटेज के दबाव में पिसे चले जा रहे हैं। जिसके चलते समयाभाव में बच्चों की सृजनशीलता एवं कौशल विकास लगभग समाप्त हो गया है। गुरुकुलों को राजाश्रय प्राप्त होता था। 

विद्यार्जन हेतू गुरुकुलो की यथोचित व्यवस्था राजा की जिम्मेदारी रहती थी। प्रत्येक उन्नत राष्ट्र निर्माण में शिक्षा एवं स्वास्थ्य दो महत्वपूर्ण अंग है। हमारी शासकों से यही प्रार्थना है कि वे हमें मुफ्त में राशन, बिजली जैसी अन्य प्रलोभनकारी तथाकथित सुविधाओं का झुनझुना देकर राष्ट्र को पंगु, अकर्मण्य नहीं बनाए, अपितु एक सक्षम राष्ट्र के निर्माण हेतू, आदर्श शिक्षा एवं बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था प्रदान करने की जिम्मेदारी का वहन करें। हम एक उच्चतम राष्ट्र के संवाहक हैं , यदि इस समय हम चूक गए तो, राजा का पाप प्रजा को भोगना पड़ता है,यह  कहावत चरितार्थ होती दिखाई देगी। 

हमें अपनी सीमाओं को लांघकर खर्च वाले कोई कार्य नहीं करने के संस्कार दिए गए है, लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाने हेतू खर्च की सीमा लांघना भी पड़े तो अवश्य लांघीए। सुपर 30 पिक्चर भी हमें यही सन्देश देती है कि एक बालक शिक्षा पूर्ण कर जब बाहर निकलता है तो वह केवल स्वयं का ही विकास नहीं करता, अपितु पूरे परिवार का जीवन उन्नत बनाता है साथ ही साथ समाज एवं राष्ट्र के विकास में योगदान करता है।
समुद्र (राष्ट्र) कितना ही पानी से लबालब हो जाए, नदी के पानी (शिक्षक) का उसपर कुछ ना कुछ उधार रह ही जाता है।

- जितेन्द्र शर्मा
नागपुर, महाराष्ट्र 
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