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शोध एक अनुशासित प्रक्रिया है : प्रो. गिरीश्वर मिश्र



शोध के क्षेत्र में बहुमुखी समस्याएं है, उसे उर्जा देने की नितांत आवश्यकता है। शोध से ज्ञान में अभिवृद्धि होती है। शोध मात्र सूचनाओं का संकलन नहीं है, अपितु शोध एक अनुशासित प्रक्रिया है। इस आशय का प्रतिपादन प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र ने  किया। केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद एवं विश्व हिंदी सचिवालय के संयुक्त तत्वावधान में एवं वैश्विक हिंदी परिवार के आयोजन में 'हिंदी में शोध की चुनौतियां' विषय पर आयोजित राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी रविवार, 23 जुलाई 2023 में वे अध्यक्षीय उद्बोधन दे रहे थे। 

डॉ. गिरीश्वर मिश्र ने आगे कहा कि शोध करने के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दबाव बहुत बढ़ गया है। इसलिए शोध की मूल आत्मा ‘जिज्ञासा’ का अभाव हो गया है। शोध का लक्ष्य होता है, ज्ञान में अभिवृद्धि करना किंतु शोध कार्य को एक अनुष्ठान न मानकर एक निर्धारित ढांचे में कुछ फिट कर उसे शोध मान लिया जाता है। इस प्रक्रिया में ना तो कुछ जुड़ता है और ना किसी प्रश्न का उत्तर है । परिणामत: अधिकांश शोध, मात्र सूचनाओं का संकलन होता जा रहा है। यह बहुत बड़ी बाधा है । शोध को अध्ययन का अनिवार्य अंग ना मानना, इस व्यवस्था की सबसे बड़ी असफलता  और गंभीर चुनौती है । शोध के लिए कोर्स वर्क करने की नीति बनाई गई थी किंतु शोध प्रारंभ होने से पूर्व ही सब कुछ निर्धारित कर देना,शोध के लिए घातक है । 

शोध करने वाले पढ़ते नहीं हैं, इसलिए ज्ञान की मूल अवधारणा अधिकाधिक अध्ययन से वंचित रह जाती हैं। उन्होंने परामर्श में कहा कि एक  वर्ष तक शोधार्थी को क्षेत्र निर्धारित करते हुए खाली छोड़ देना चाहिए । उसे ज्ञान की गंगा में गोते लगाने दीजिए । विषय में तैरने दीजिए, जिससे वह  क्षेत्र विशेष में बहुआयामी अध्ययन करें, अधिक से अधिक पढ़ें, तब उसका शोध विषय एवं रीति-नीति तय होनी चाहिए । उन्होंने यह भी कहा कि, शोध के लिए प्रशिक्षण बहुत कमजोर हो गया और सिनॉप्सिस एवं  चैप्टराइजेशन बहुत दुखद प्रश्न शब्द बन गए हैं । शोध के विषय में सब कुछ पहले ही निर्णय हो जाता है। परिणामत: नकलची प्रवृत्ति भी बढती जा रही है। सूचनाओं का संकलन और पुनः संकलन हो रहा है। 

इसलिए चारों और एक जैसा चैप्टराइजेशन और सूचनाओं के संकलन ही दिखते हैं। वास्तव में शोध का ज्ञान का अंग स्वीकार किया जाना चाहिए। फादर कामिल बुल्के के शोध ग्रंथ का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि शोध योजना क्या होती है? ये उनसे सीखे। अच्छी शोध पत्रिकाएं ना होने पर चिंता वक्त करते हुए केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा से अपेक्षा की कि एक ऐसी मानक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका होनी चाहिए, जिसमें लिखना और छपना कठिन हो और गर्व का विषय बने। उन्होंने आगे यह भी कहा कि, जैसा कि विश्वविद्यालयों के अध्यादेशों में शोध की परिकल्पना की गई है, उस आधार पर आज कहीं भी नूतन, मौलिक,विचार विमर्श को प्रारंभ करने वाला कोई शोध नहीं हो रहा है। 

किसी भी शोध से कुछ कुरेदने के लिए नहीं मिलता और ना कोई नई दृष्टि या विविधता होती है, मात्र पिष्टपेषण ही दिखता है। कहीं तो एक लेखक विशेष को लेकर या उनकी रचनाओं की सूची बनाकर या किसी  पुस्तक विशेष को आधार बनाकर शोध  प्रबंध तैयार हो जाते हैं। यह शोध संसार में सबसे बड़ी चुनौती है। कदाचित इसलिए शोध का वर्तमान स्वरुप बहुत गंदला जल जैसा एकत्रित है, जो किसी की प्यास तृप्त करने योग्य नहीं रह गया है| हिंदी में अभी भी शोध के बहुत अवसर हैं। विभिन्न विधाओं में हिंदी साहित्य के इतिहास के अन्वेषण में लोक व्यवहार, परंपराओं, विमर्श को केंद्र में रखते हुए काम हो सकता है। शोध उपाधि को ज्ञान का पर्याय मान लेने की भूल नहीं करनी चाहिए और इसे बाध्यज्ञताओ अथवा अनिवार्यताओं से मुक्त करना होगा, जिससे लेखकीय मंजाई हो एवं लेखक, पाठक निखरे।

हिंदी में एक ऐसी पत्रिका होनी चाहिए जिससे कि ज्ञान के लिए विदेशी भी पढ़ने को उत्सुक हो। फीडबैक की आवश्यकता पर बल देते हुए प्रो. मिश्र जी ने कहा कि शोधार्थी को अपनी आलोचनाएं आमंत्रित करनी चाहिए, तभी परिष्करण एवं शुद्धीकरण हो सकता है। साहित्य चोरी प्लेगरिज्म को भयानक मानसिक व्याधि मानते हुए उन्होंने कहा कि यद्यपि आजकल नवीनतम तकनीक से इसे पकड़ा जाने लगा है, किंतु इससे लेखकीय मौलिकता एवं चिंतनशीलता नष्ट हो गई है और कुछ नहीं सोचा जा रहा है, जैसे कि मध्यकाल की कविता पर अभी भी बहुत काम हो सकता है। हमें मौलिकता एवं चिंतनशीलता की अभिवृद्धि के लिए शोध प्रणाली पद्धति आदि  में बड़े बदलाव करने होंगे। 

शोध में समझौता न हो क्योंकि शोध  का दायरा बहुत बड़ा होना चाहिए। हिंदी में नया रचा जा सकता है और अभी हमारे सामने स्वाधीनता, देश की संस्कृति, चिंतन, भारतीय ज्ञान  परंपरा आदि  अनेक ऐसे क्षेत्र है, जिनमें मौलिक विमर्श प्रारंभ किया जा सकता है। शोध प्रबंध की निरर्थकता पर उन्होंने कहा कि उपाधि पूर्ण  हो जाने के बाद कभी-कभी तो स्वयं शोधकर्ता अपने ही शोध की उपेक्षा करने लगता है और उसमें कोई गौरव बोध  नहीं आता।
 
मुख्य अतिथि प्रो.अनिल राय अधिष्ठाता, अंतरराष्ट्रीय संबंध, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि बड़ी अजीब स्थिति है कि हमारा एम ए  का विद्यार्थी दूसरे वर्ष ही एम ए के विषय के नाम ही भूल जाता है। शोध के क्षेत्र में यह आवश्यक नहीं है कि एक ही विषय पर काम करने वाले अनेक लोग शोध में कुछ अभिवृद्धि कर रहे हों क्योंकि शैक्षणिक क्षेत्र में कॉपी पेस्ट एवं पुनरावृति का खतरा बढ़ गया है | शोधार्थियों के लिए शोधगंगा के अलावा पोर्टल बहुत कम है। तुलनात्मक शोध में विद्यार्थियों की रुचि कम दिखाई पड़ रही है। रासो आदि आदिकालीन साहित्य पर कोई शोध नहीं हो रहा है। अनुवाद के क्षेत्र में भी शोध ना के बराबर है | लोक साहित्य पर भी काम नहीं हो रहा है | जो हो रहा है उसमें भी लापरवाही है। नाटक पर भी काम होना जरूरी है। रूचि और प्रोत्साहन शोध में जरूरी होता है। वास्तव में शोध एक मिशन है | शोध मात्र उपाधि के लिए ना करें। बाद में उसे अपडेट भी करें, ताकि नवाचार में भी उपयोगी हो।

मुख्य वक्ता प्रो. सत्यकेतु सांस्कृत, डीन, अकादमिक मामले, आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली ने अपने वक्तव्य में कहा कि अलग नजरिए से देखने वाला ही शोध होता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में बहुत सी चीजें ऐसी हैँ ,जिन पर काम होना चाहिए। पुस्तक समीक्षाओं को पढ़ना, शोधार्थी की निपुणता होनी चाहिए | हिंदी में ऐसे शोध कार्य  कम है, जिनमें साक्षात्कार लिए जा रहे हों , इस पर भी काम होना चाहिए। यदि साहित्यकार जीवित है या उनके पास के लोग जीवित हैं, तो उनसे वार्ता करते हुए अपने शोध को पुनरावृति दोष से बचाते हुए समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। बहुत अध्यापक ऐसे हैं, जो तकनीक से दूर हैं। विषय चयन में शोधार्थी की अपनी रूचि होनी चाहिए | सीमा निर्धारण शोध में आवश्यक है। शॉर्टकट से बचना चाहिए।

विशिष्ट अतिथि प्रो. रेखा सेठी हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने अपने मंतव्य में कहा कि पहले शोधार्थी एवं अध्यापक में गहरा संबंध होता था और अनौपचारिक वार्ताओं एवं संवाद से ज्ञान तथा शोध परंपरा पोषित होती थी। ज्ञान की धारा एवं ज्ञान -कोश  निर्माण में योगदान देना भी शोधार्थियों एवं शोध निर्देशकों का दायित्व हो। इसलिए अगले पदों तथा सम्मानों को पाने के लिए शोध संख्याओं को निश्चित किया गया। कदाचित इसका परिणाम यह हुआ कि इससे हिंदी शोध का नुकसान हुआ। हिंदी में स्कोपस जर्नल्स की संख्या बहुत कम है और शोध की गुणवत्ता इससे प्रभावित होती है। क्योंकि हिंदी के शोधार्थी संदर्भ देने के प्रति गंभीर नहीं होते हैं। 

आज तकनीकीकों ने भौगोलिक सीमाएं निरस्त कर दी है। तब हमारे शोधार्थियों को संसार के किस हिस्से में क्या-क्या कार्य हो रहे हैं और क्या विधियां अपनाई जा रही है, इनके प्रति सचेत और जिज्ञासु होना चाहिए तथा उन्हें अपनाना चाहिए। शोध की मौलिकता एवं चुनौतियों के प्रति सचेत करते हुए हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमारा शोध ज्ञान, अनुसंधान, निष्कर्ष अधिक से अधिक लोगों, समूह तक पहुंचना चाहिए और हमारे काम को कितने लोगों को कितने लोगों ने संदर्भित किया-यह बहुत आवश्यक है। हमारे पास एनआईआरएफ रैंकिंग आदि के अनुरूप भारतीय ज्ञान परंपरा में शोध की सैद्धांतिकी नहीं होती और हम पश्चिम की ओर देखने लगते हैं, जो कि आवश्यक नहीं है, कि हम उनकी नकल करें।

विशिष्ट अतिथि डॉ. मलखान सिंह, सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा कि, हिंदी में शोध की विशेष चुनौती है, क्योंकि भाषा अपने समाज और अपने समय के प्रश्नों को प्रकाशित करती है और अपने समय की चुनौतियों से जूझती है। शोध के विषय एवं प्रविधि का चयन करते हुए ध्यान रखते हैं कि शोध की आवश्यकता, महत्व एवं संभावनाएं क्या है? किंतु हिंदी के मामले में शोध के बाद का परिदृश्य एवं भविष्य धुंधला होता है और हिंदी में शोध की यह सबसे बड़ी चुनौती है।

हमें विषय का चुनाव करते समय अपने समय के सबसे ज्वलंत प्रश्नों को मूल में रखना ही होगा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के आलोक में अंतर अनुशासनिक (इंटर डिसिप्लिनरी रिसर्च) शोध को बढ़ावा देना होगा। किसी उपन्यास का मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अध्ययन करने के लिए हिंदी के शोधार्थी को मनोवैज्ञानिक सिद्धांत एवं विधियों की भी जानकारी होनी चाहिए। शोध में एजेंडा अथवा पूर्व ग्रहों को स्थान नहीं होना चाहिए। अधिकाधिक शोध सर्वे पर आधारित होने चाहिए, जिसमें जमीनी आंकड़ों पर भी परीक्षण होना चाहिए, जिसका शोध संसार में अभाव है। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी को राष्ट्रीय विषयों एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अंतः संबंध स्थापित करते हुए शोध की मौलिक राह चुननी चाहिए तथा हिंदी वालों को आधुनिकतम तकनीक का सशक्त प्रयोक्ता होनी चाहिए। 

शोध गुणवत्ता पूर्ण हो। शोध से विकास चाहते हैं तो शोध के क्षेत्र को प्रोत्साहित करना होगा। शोध समन्वय, संतुलन, सकारात्मकता व वैज्ञानिक दृष्टि से भरा हो, जिसमें तथ्यात्मकता एवं सैध्दांतिकी हो । एक चैप्टर इधर से, एक चैप्टर उधर से, 5 चैप्टर हुए तो वह शोध कदापि नहीं, बल्कि यह तो नकल है। 

गोष्ठी का आरंभ करते हुए प्रोफेसर राजेश कुमार ने कहा कि शोध आधुनिक संपूर्ण विकास का आधार है। शोध की हिंदी कक्षाओं के स्वरूप का विकास करने, शिक्षण पद्धतियां आदि बहुत से आयामों की आधारशिला रखने और विभिन्न मूल्यांकनों के निष्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका है। शोध की अनेक प्रवृत्ति एवं दिशाएं हैं, जिनमें सर्वेक्षण, आकलन, मूल्यांकन आदि एवं विभिन्नता, आकार-प्रकार होते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध निदेशक प्रो. दर्शन पांडेय  ने गोष्ठी का संचालन करते हुए कहा कि शोध किसी विषय विशेष को केंद्र में रखकर आंकड़े जुटाना और उन्हें एक विशेष दिशा में प्रस्तुत करना तथा उपाधि पाने की शैक्षणिक प्रक्रिया है। पर शोध का एक व्यावहारिक रूप भी है, जिसमें योजना बद्ध रूप में कोई सृजनात्मक उद्देश्य से संपदा में अभिवृद्धि करने की प्रक्रिया संपन्न होती है और इस दिशा में बाल साहित्य, डायरी, संस्मरण, काव्य, गद्य, भाषा, मीडिया, सिनेमा, अस्मिता आधारित विमर्श आदि सभी विधाओं एवं शाखाओं  में काफी कार्य हुआ है। आजकल हिंदी में शोध की अन्य संदर्भों के साथ सलंग्नता को लेकर भी अंतर अनुशासन अध्ययन भी हो रहे हैं।

केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष श्री अनिल जोशी जी ने अपनी प्रस्तुति में कहा कि हिंदी के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्वरूप को व्यापकता देने के लिए आवश्यक है कि हिंदी व भारतीय भाषाओं के संबंध में विशेषज्ञों द्वारा गहन विचार मंथन हो और विचारित बिंदुओं का कार्यान्वयन हो।

गोष्ठी में प्रख्यात पत्रकार राहुल देव ने कहा कि हिंदी में शोध चुनौतियों में हिंदी साहित्य ही नहीं, अन्य विधाओं में भी शोध प्रक्रिया का विकास होना चाहिए। हिंदी के शोधार्थियों को हिंदी से इतर अन्य भारतीय भाषाओं में और वैश्विक भाषाओं को विशेषकर अंग्रेजी में कैसे शोध हो रहे हैं, इन्हें जाने बिना हमारे अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोध तैयार नहीं हो सकते। शिक्षक एवं शोधार्थियों की प्रवृत्तियों में अंतर होता है, लेकिन हमें नूतन ज्ञान निर्माण के उद्देश्य से  दोनों को देखना चाहिए। उपाधि अनिवार्यता दोनों की ही हानि  करती है।

इस आभासी गोष्ठी में संयोजक डॉ. जवाहर करनावट, डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह, जितेंद्र, प्रो. सुनील बाबूराव कुलकर्णी, निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा; डॉ. पद्मेश गुप्त, संयोजक, वैश्विक हिंदी परिवार, डॉ. माधुरी रामधारी, महासचिव, विश्व हिंदी सचिवालय, मार्गदर्शक डॉ. नारायण कुमार, डॉ. वी. जगन्नाथ, कार्यक्रम संयोजक राजेश कुमार, अंतरराष्ट्रीय संयोजक संध्या सिंह, (सिंगापुर), तकनीकी सहयोग डॉ. मोहन बहुगुणा, सुरेश कुमार ‘उरतृप्त’ , डॉ गंगाधर वानोडे, हैदराबाद; विजय नगरकर, विनयशील चतुर्वेदी, जयशंकर यादव, राजीव कुमार रावत आदि सहित गणमान्यों की गरिमामयी उपस्थित थीं।
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