निस्वार्थ भावना से ली गई पहल सफल होती है!
पत्रकारों का महाकुंभ मुंबई में
एक लंबे इंतजार के बाद हमारे विशाल राष्ट्रीय संगठन प्रेस क्लब ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स का राष्ट्रीय अधिवेशन आगामी 13 अगस्त को मुंबई में सम्पन्न होने जा रहा है। जिसमें देश भर से पत्रकारों, मीडिया कर्मियों तथा कला एवं साहित्य प्रेमियों का ज़मावड़ा लगने वाला है।
अब जब से इस कार्यक्रम के पोस्टर्स सोशलमीडिया में वायरल हुआ है (लगभग एक महीने से) तब से देश भर से संगठन से जुड़े सदस्यों की विभिन प्रतिक्रियाएं आती रही है। कोरोना की मरणांतक परिस्थितियों में तथा उसके बाद अब तक लगभग पच्चीस ऑनलाइन गोष्ठियां, परिचर्चा, कवि सम्मेलनों तथा सम्मान समारोह रखा गया, कुछ छोटे स्तर की ऑफलाइन बैठकें भी हुई और सभी ज्यादातर आभासी पटल पर रूबरू होते रहे लेकिन आमने-सामने मिलने की बात ही कुछ और होती है।
इस बीच बहुतों ने ऑफलाइन कार्यक्रम की इच्छा भी जतायी जिसके मद्देनजर अब ईश्वर की महान अनुकंपा से इस राष्ट्रीय अधिवेशन तथा किताब विमोचन कार्यक्रम की नींव रखी गयी। और उसमें क्रियान्वयन शुरू हुआ और छहों दिशाओं से उत्साहित सदस्यों ने कार्यक्रम में शिरकत होने की इच्छा जतायी और आयोजकों का मन प्रफुल्लित होता गया। लेकिन ऐसे आयोजनों में जो सबसे बड़ी समस्या सामने आती है वह य़ह कि दूसरे शहर जाकर कार्यक्रम में उपस्थित होना, कार्यक्रम की गंभीरता को अपनी-अपनी सोच, मनोवृत्ति, प्राथमिकता के आधार पर अहमियत देना, और उपस्थित होने के लिए यात्रा की योजना बनाना, यात्रा के माध्यमों में से अपनी अपनी सहूलियत के अनुसार चुनाव करना, दूसरे शहर में रहने का इन्तेजाम करना इत्यादि। ये सारे मसले आसान नहीं होते और सभी की पारिवारिक, अर्थिक, व्यक्तिगत समस्याओं का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता।
इंसान तरह-तरह के विचारों से दुविधा की हालत में रहता है। कोई दिल से उपस्थित होने की चाहत रखता है, अपने कलीग्स से, सीनियर्स से मिलना चाहता है पर कई मजबूरियों की वजह से नहीं आ सकता और कई लोगों के पास सारी परिस्थितियां अनुकूल होते हुए भी वो इसे महत्व नहीं देना चाहते, नकारात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं और अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं आखिर अपने अहंकार के कारण अवसर खो देते हैं इसमें आयोजकों को सभी मनोभावों/ प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है और धैर्य की पराकाष्ठा को आत्मसात करना पड़ता है।
कुल मिलाकर जब सूत्रधार निस्वार्थ भावना के साथ अच्छे ध्येय के लिए जब कोई बीड़ा उठाते हैं तो ऐसे ऑफिशियल आयोजन किसी पारिवारिक आयोजन से कहीं ज्यादा आयोजकों के भीतर समन्दर में भावनात्मक ज्वार भाटा लाते हैं लेकिन जिन्हें तजुर्बा हो उन्हें कोई खास फर्क़ नहीं पड़ता और हर बार के अनुभवों के साथ सूत्रधार का व्यक्तित्व जीवन पथ में निखरता जाता है। अंत में यही विश्लेषण मन सच लगता है आवाम के सामने किसी नेक विचार की...
पहल करना तभी सम्भव है यदि पहल का नेतृत्व कर पाने का जज़्बा हो, नेतृत्व कर पाना तभी संभव है,
यदि बात रखने का सहज व विनम्र तरीका हो;
सहज व विनम्र तरीका तभी संभव है, यदि अंदर "मैं" की भावना न हो; "मैं" इगो की अनुपस्थिति तभी संभव है, यदि पहल का उद्देश्य नि:स्वार्थ कर्म करना हो। बिना कोई "स्वार्थ" कुछ करना तभी संभव है, यदि मन में किसी प्रलोभन की लालसा न हो, प्रलोभन के आकर्षण का अभाव तभी संभव है,
यदि मनुष्य के अंदर सच्ची निष्ठा व उदारता हो!
- शशि दीप
विचारक/ द्विभाषी लेखिका, मुंबई
shashidip2001@gmail.com