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मुझे मेरा शहर लौटा दो..


इंसान की जरूरतें
सिर्फ
रोटी कपड़ा और मकान
नहीं हो सकते
जहाँ मैं सुकून की साँसें
ले सकूँ
मुझे मेरा शहर लौटा दो।

कहते हैं कि
आज
दुनिया मुट्ठी में है
हकीकत है कि
मुट्ठी में रेत की तरह
फिसल रही है ज़िंदगी।

बंध रही हैं
चारों ओर
नफरतगर्दी की
ऊंची कंटीली दीवारें
मंदिरों में
घंटे और शंखनाद की जगह
गूंज रही है
प्यास बुझाने आये
किसी पथिक के
मुंह पर पड़े
तमाचे की चीत्कार
मुझे मेरी ज़िंदगी लौटा दो
मुझे मेरा शहर लौटा दो।

सिसक रहा है
घुटनभरे
बंद कमरों में
कैमरे पर कैद
अकेला इंसान
जहाँ सामने
इंसाननुमा
कुछ लोग तो हैं
परदे के पीछे
हैवानियत
सर पर
चढ़कर बोल रही है
इंसानियत
दर दर की ठोकरें
खा रही है।
मुझे इंसानियत लौटा दो
मुझे मेरा शहर लौटा दो।

किसे कहूँ
अपना शहर?
पूछता हूँ
अपने आप से
जहाँ परिचित तो
बहुत हैं
संबंध उथले हैं
तेज रफ्तार के
भगदड़ में
पैसे का बोलबाला है
सच्चाई और ईमानदारी का
मुँह काला है।

जहाँ
बीमारी का
भौकाल है
ज़िंदगी फटेहाल है
जहाँ सच्चा इंसान
फिर से
सर उठाकर जी सके
मुझे वो तहजीब बाईज्जत लौटा दो
मुझे मेरा शहर लौटा दो।

- चंद्र विकाश
स्वदेशी विचारक
gaiasansad@gmail.com

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