परसाई के लेखन का प्राणतत्व मानवता और मानवता की मुक्ति है : ब्रजेश त्रिपाठी
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नागपुर। परसाई के लेखन का प्राणतत्व मानवता और मानवता की मुक्ति है।यह विचार वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ ब्रजेश त्रिपाठी ने व्यंग्यधारा समूह की ओर से हरिशंकर परसाई जी के जन्मशती संवाद की श्रृंखला में 157वीं ऑनलाइन व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में व्यक्त किए । जिसका विषय था 'सामयिक चुनौतियां और परसाई'। गोष्ठी में अपने कथन को विस्तार देते हुए अतिथि वक्ता वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ ब्रजेश त्रिपाठी ने कहा कि हरिशंकर परसाई जी ने व्यंग्य लेखन में प्रखरता के साथ व्यवस्था पर चोट की। पाखंड, अंधविश्वास, राजनीतिक, सामाजिक, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर खरी-खरी बात कही।
अपने समय के समाज को लेखन में उतारा। प्रेमचंद के बाद परसाई जी ने खुरदरेपन के साथ लिखा। वे कथनी और करनी में एकरूपता के हिमायती थे। 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर' व्यंग्य में पुलिस व्यवस्था की पोल खोली। राजनीति उनके व्यंग्य का मुख्य विषय था लेकिन कोई विषय उनकी लेखनी से नहीं बच पाया। परसाई जी भविष्य के लेखक थे। उस समय दूरदृष्टि से जो देखा वह आज दिखाई दे रहा है।
उनके लेखन का प्राणतत्व मानवता और मानवता की मुक्ति है। उनका लेखन कर्म संत कबीर के आसपास दिखता है। कबीर ने विसंगतियों पर प्रहार किया है और परसाई जी ने भी व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। डॉ. त्रिपाठी ने कहा कि व्यंग्य हास्य लेखन नहीं है। व्यंग्य में हास्य का पुट आ सकता है किंतु हास्य प्रमुख नहीं हो सकता। सर्जक की भांति व्यंग्यकार अनुपयोगी चीजों को अलग करता है।
तत्पश्चात वरिष्ठ व्यंग्यकार और आलोचक कैलाश मंडलेकर ने कहा कि परसाई जी ने अपने समय से मुठभेड़ किया। समय में रहकर भी समय सीमा से परे लेखन किया। कुछ लोग समय को साध लेते हैं। यदि समय को षड़यंत्रपूर्वक साधोगे तो एक समय के बाद समय बदला लेगा और आपको पीछे छोड़ देगा। परसाई जी के पास समकालीन इतिहास की दृष्टि थी। उन्होंने वर्तमान और पौराणिक के बीच संतुलन साधा। नीलकंठ व्यंग्य में शिवजी के माध्यम से दिखावे की प्रवृत्ति पर प्रहार किया है।
कैलाश मंडलेकर जी ने मुक्तिबोध और परसाई के लेखन पर दृष्टिपात करते हुए कहा कि मुक्तिबोध लड़ते हैं तो अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं जबकि परसाई शांत रहते हैं। उन्होंने कहा कि परसाई के तेवर गालिब से मिलते हैं। परसाई के व्यंग्य में एक नई भाषा दिखाई देती है। वे शालीनता से व्यंग्य को प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने परसाई जी के संस्मरणों को पढ़ने पर जोर दिया।
विषय पर विस्तार से बात करते हुए वरिष्ठ व्यंग्यकार राजेंद्र वर्मा (लखनऊ) ने परसाई जी के साफ कहने के साहस और पक्षधरता को अपने लेखन में उतारने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि अब संपादक को पसंद आने वाला और बच-बचा कर लेखन किया जा रहा है। परसाई जी के' कहत कबीर' स्तंभ लेखन, गांधीजी का चश्मा चोरी प्रकरण, शाह बानो प्रकरण, रेलें क्यों टकराती हैं, हिंदी के प्रमोशन और विश्व हिंदी नौटंकी आदि व्यंग्यों पर चर्चा करते हुए भाषा की अभिव्यंजना शक्ति को समझने के लिए उनके व्यंग्य को पढ़ने पर बल दिया।
इसी क्रम डॉ. सेवाराम त्रिपाठी जी ने आगे कहा कि परसाई जी ने जो लिखा डंके की चोट पर और ठोंक बजाकर लिखा। जो जीवन जिया उसे अपने लेखन में उतारा। भोगा हुआ यथार्थ परसाई के लेखन में आया है। सारी चीजों को दर्पण की तरह साफ शब्दों में लिखा। परसाई जी का लेखन अपने समय का दस्तावेज हैं।
उन्होंने कहा कि अब लेखकों में दोगलापन आ गया है। नागरिकता प्रमाणपत्र, किसान आंदोलन आदि के विरोध में व्यंग्यकारों ने कम लिखा है। लगता है व्यंग्य में अब वो ताकत नहीं बची है। व्यंग्यकार भंवरलाल जाट ने कहा कि परसाई जी ने राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों तथा भ्रष्टाचार और पाखंड पर प्रहार किया।
गोष्ठी के आरंभ में वरिष्ठ व्यंग्य समालोचक डॉ. रमेश तिवारी ने प्रस्तावना में कहा कि परसाई के समय की चुनौतियाँ क्या हैं और परसाई का लेखन अपने समय से कैसे टकराव करता है? इस पर विचार-विमर्श करके हम अपने रचनात्मक दायित्वों के साथ-साथ लेखन के सरोकार एवं समय से मुठभेड़ में लेखक की भूमिका को समझ सकते हैं| परसाई का लेखन उन्हें कल, आज और कल भी प्रासंगिकता प्रदान करता है|
गोष्ठी का संचालन सहभागिता वरिष्ठ व्यंग्यकार अभिजित कुमार दुबे की रही। आभार प्रदर्शन टीकाराम साहू 'आजाद' (नागपुर) ने किया।
व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में सर्वश्री रघुवीर शर्मा, सुनीता चौधरी, ललिता जोशी, प्रभाशंकर उपाध्याय, वेदप्रकाश भारद्वाज, प्रभात गोस्वामी, राजशेखर चौबे, डॉ. किशोर अग्रवाल, हनुमान प्रसाद मिश्र, परवेश जैन, रामस्वरूप दीक्षित, डॉ. सुरेश कुमार मिश्र 'उरतृप्त' आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।