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इज्ज़त की रोटी कमाना आसान नहीं!


इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान में सर्वप्रथम "रोटी" आता है, इससे साफ़ समझ में आता है कि इंसान का पेट भरा रहे तभी वह अपनी जिंदगी में कुछ और करने के लिए सक्षम हो सकता है। वायु, जल व प्रकाश तो प्रकृति प्रदत्त है उसके अलावा भोजन के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता है और यही कारण है कि मानव समाज में, कोई भी जिम्मेदार नागरिक अपना और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का इंतज़ाम सबसे पहले करता है। 

माता पिता अपने संतानों को भविष्य में सम्मान जनक जीवन देने के लिए मेहनत से पढ़ाते हैं, अपनी-अपनी समझ से अच्छी परवरिश देते हैं क्योंकि अकर्मण्यता मनुष्य के प्राकृतिक गुणों के विपरीत है।अब रोटी के इंतजाम की प्रक्रिया में दो वर्ग आते हैं। पहले तो वो जो ईमानदारी से श्रम पर आस्था रखते हैं और उसे ही पूजा समझते हैं वे कर्मवीर होते हैं। 

ऐसे व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी निराश व हताश नहीं होते अपितु संघर्ष करते हुए समस्त अवरोधों पर विजय प्राप्त करते हैं, वे जीवन पथ पर आयी कठिनाइयों के लिए दूसरों को उत्तरदायी नहीं ठहराते वे स्वयं उन परिस्थितियों का अवलोकन करते हैं कमियों का निवारण करते हैं और सच्चाई, ईमानदारी, निष्ठा के साथ श्रम का दामन थामे जीवन प्रवाह में सतत गतिमान रहते हैं और एक दिन ऐसा आता है जब वह रोटी, कपड़ा, मकान के साथ-साथ पर्याप्त सम्पत्ति, यश, वैभव आदि सभी पा लेता है। 

बाद में लोग उन्हें भाग्यशाली समझते हैं पर यह रहस्य तो उन महान आत्माओं को ही पता होता है जो दो जून की रोटी और सम्मान जनक जीवन जीने के लिए कितने पापड़ बेले होते हैं। उनकी जीवन शैली का अध्ययन करने से उनकी सफ़लता के पीछे उनका अनवरत संघर्ष, उनकी दृढ़ता, अनुशासन और धैर्य का पता चलेगा। 

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का ही उपदेश दिया था "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:।" यही वह मंत्र है जिससे मेहनत करने वाले लोग अपनी सभी इन्द्रियों को केन्द्रित करते हुए, अवांछित व विक्षुब्ध करने वाले तत्वों को नज़रंदाज कर सकते हैं, लुभाने वाले, सन्मार्ग से विमुख करने वाले, प्रलोभन वाले तत्वों से मोह भंग कर पाते हैं, और अपनी कार्य क्षमता को बढ़ा सकते हैं।[ इस मनोयोग को आत्मसात न करने से वह जल्दी ही निराशा महसूस करने लगता है और अपने रुचि के कार्यों में भी उसे अरुचि होने लगती है। इस प्रकार गूढ़ विचार करने से ही हम समझ सकते हैं कि मेहनत से दो जून की रोटी कमाना  कितना कठिन होता है। 

सरकारी नौकरी तो देश की आबादी और सरकारी नीतियों के मद्देनजर मुट्ठी भर लोगों को ही नसीब हो सकता है, इसलिए अधिकांश लोग विभिन्न दूसरे तरीक़ों से अपनी रोजी-रोटी का बंदोबस्त करते हैं। जिनमें से एक बड़ी आबादी गैरकानूनी तरीक़ों से भी कमाते हैं। "मरता क्या न करता" जैसे हालात में लोग पेट की ख़ातिर अपना विवेक खो बैठते हैं और बुरे धंधे करने लगते हैं। 

लेकिन अनैतिक कामों में लिप्त होने के कारण समाज में उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं अपनाया जाता और वे अपनी अलग ही बिरादरी बनाकर जीते हैं जिसमें उनके पास पर्याप्त रोटी, कपड़ा और मकान तो रहता है पर इज्जत, मान सम्मान उन्हें कोई नहीं देता, और तो और इज्जतदार लोग उनके साथ दूर दूर का नाता रखने से भी बचते हैं। अब चाहे उनके बुरे काम करने के पीछे कैसी भी मज़बूरी हो पर समाज के नजरिये से एक सीधे सरल मज़दूर का, एक चपरासी या एक घरेलू सर्वेंट की, किसी अथाह दौलतमंद माफ़िया के सामने कहीं ज्यादा इज्ज़त होगी। 

इसीलिए देश में ऐसी नीतियां बनायी जाती है ताकि आबादी के अनुसार सबको मूलभूत आवश्यकताएं मुहैया की जा सके औऱ लोग पेट के लिए अनैतिक, गैरकानूनी तरीक़ों का सहारा न लें। देश में कर्मयोगियों की अधिकता हो जिससे मनुष्य स्वयं में निहित असीमित शक्तियों को पहचान कर उसका सदुपयोग कर सके। खाए अघाये लोग व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सामाजिक दायित्वों के प्रति भी ध्यान दे सकें और देश दुनिया के चहुंमुखी विकास के भागीदार बन सकें। दो जून को  ही नहीं बल्कि प्रतिदिन, इज्जत की रोटी कमाने वाले तमाम कर्मयोगियों को हार्दिक नमन, हार्दिक कृतज्ञता।

- शशि दीप
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com

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