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इतनी जल्दी, मालुम न था...



ख़्वाब बुने कई मगर, 
वक्त इतने जल्दी आएगा,
मालुम न था।

बहुत कुछ 
बचा रखा था मूठ्ठी में,
धीरे-धीरे धीर से काम आएगा, 
फिसल जाएगा रेत सा पल इतने जल्दी,  
मालुम न था।

कुछ पल पहले तो मिले हम,
बिछड़ेंगे यूं इतने जलद, 
मालुम न था।

कितनी सुहावन हैं 
ये गलीयां, 
समां बंध रहा था
शाम ए महफिल का, 
ख़िजां ऐसी छा जाएगी, 
सच, मालुम न था।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव'
 नागपुर (महाराष्ट्र)
काव्य 8652439581257025394
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