आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी को परिनिष्ठित रूप प्रदान कराने का किया प्रयास : डॉ. सुधा चाकरे
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नागपुर/पुणे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने "सरस्वती पत्रिका" के माध्यम से हिंदी भाषा की जो सेवा की है, उससे हम कभी उऋण नहीं हो सकते । उन्होंने हिंदी को परिनिष्ठित रूप प्रदान करने का सफल प्रयास किया है । इस आशय का प्रतिपादन डॉ सुधा चाकरे, हिंदी विभाग, शासकीय महाविद्यालय नलखेड़ा, आगर मालवा, मध्य प्रदेश ने किया । विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में मंगलवार दिनांक 30 मई 2023 को आयोजित 158 वीं राष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी (28वीं) में वे वक्ता के रूप में उद्बोधन दे रही थी ।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने गोष्ठी की अध्यक्षता की । डॉ. सुधा चाकरे ने आगे कहा कि, भारतेंदु युग को यदि आधुनिक युग का प्रवेश द्वार माना जाए, तो द्विवेदी युग उसका विस्तृत प्रांगण है । क्योंकि इस युग में हिंदी साहित्य को फलने फूलने का अवसर प्राप्त हुआ । द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को प्रधानता देकर हिंदी भाषा को संस्कारित करते हुए उसे निखरता रूप प्रदान किया ।
डॉ. नूरजहां रहमातुल्लाह, हिंदी विभाग, कॉटन विश्वविद्यालय, गुवाहाटी, असम ने अपने मंतव्य में कहा कि भारतेंदु युग में नवजागरण का जो कार्य प्रारंभ हुआ था, जिसे द्विवेदी युग में और आगे बढ़ाया गया । इस युग में विशेषत: समाज सुधार, नवजागरण, आदर्शवाद तथा नैतिकता पर विशेष रूप से बल दिया गया । आर्य समाज, ब्रह्म समाज का स्पष्ट प्रभाव द्विवेदी युग के कवियों पर परिलक्षित होता है ।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अध्यक्षीय समापन में कहा कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी प्रमुख स्तंभ बनकर इस युग में उभर कर सामने आए ।
सन 1903 में "सरस्वती पत्रिका" के वे संपादक बने थे । द्विवेदी युग की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति राष्ट्रीयता है। इसमें राजनीतिक चेतना और सांस्कृतिक पुनरुत्थान का व्यापक प्रभाव मिलता है। द्विवेदी युग में सभी काव्य रूपों का प्रयोग हुआ है । यह सांस्कृतिक पुनरुत्थान, राष्ट्रीयता और जागरण सुधार का युग रहा है ।
प्रारंभ में संस्थान के सचिव डॉ गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश ने अपने प्रास्तविक उद्बोधन में कहा कि द्विवेदी युग की समय सीमा सन 1900 से 1920 ई. तक मानी जाती है । इस युग का साहित्य मानवतावादी दृष्टिकोण से परिपूर्ण है ।
आचार्य द्विवेदी जी के अथक प्रयत्नों से इस युग में गद्य और पद्य की भाषा का एकीकरण भी हुआ है । खड़ी बोली के स्वरूप निर्माण में द्विवेदी युग का महनीय योगदान है । अर्जुन गुप्ता, प्रयागराज की सरस्वती वंदना से गोष्ठी का शुभारंभ हुआ ।
डॉ पूर्णिमा मालवीय, प्रयागराज ने स्वागत भाषण दिया। गोष्ठी का संयोजन श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव "शैली" रायबरेली ने किया । गोष्ठी में प्रा. मधु भंभाणी, नागपुर, प्रा रश्मि श्रीवास्तव” लहर” लखनऊ, श्री रतिराम गढ़ेवाल, रायपुर तथा जयवीर सिंह, वाघोली,पुणे सहित अनेकों की गरिमामयी उपस्थिति रही।
गोष्ठी का सुंदर व सफल संचालन डॉ. रश्मि चौबे, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश एवं सीमा निगम, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने किया तथा श्री लक्ष्मीकांत वैष्णव "मनलाभ", शक्ति, छत्तीसगढ़ ने अपनी स्वयं रचित सुंदर कविता से आभार ज्ञापन किया।