द्वंद्व में सरकती हिंदी
(हिंदी शोध और आलोचना)
हिंदी भाषा, भाषा या मात्र लिपि नहीं है। यह जनमानस का साहित्यिक आंदोलन है। इसके इतिहास को स्वतंत्रता आंदोलन में हुई भूमिका, लेखकों के जिक्र या विभिन्न संगठनों की सक्रियता से निष्क्रियता तक के सफर की उपेक्षा करके भी नहीं लिखा जा सकता।
हिंदी के प्रति रुझान, उसकी स्वीकार्यता पर प्रकाशित स्वतंत्र विचार ,कृतियां हों, अनुसंधान हो या वैश्विक अंचलों में इसके बोलने के लहजे का वैज्ञानिक विवेचन हो, को हम स्वीकार क्यों करते हैं। परंतु कहीं ना कहीं हम इसे अपने स्वाभिमान से नहीं जोड़ पाते। क्या कभी किसी आंदोलन का सेहरा अंत में सरकारों द्वारा स्वीकार्यता के बिना स्थापित हुआ है ।यहां हमें यह समझने में कदापि संकोच नहीं करना चाहिए कि हिंदी के जनक भारत में ही सरकार की उदासीनता और इसके समानांतर अंग्रेजी के प्रति उदारता साफ उजागर होते हैं।
ऐसे में मारीशस, फिजी, नेपाल, सुरीनाम, कनेडा आदि देशों की सरकारों का हिंदी के प्रति उदारता का दृष्टिकोण आवाम में इसकी चेतना का संचार करता है। यह कालांतर में समीक्षकों द्वारा हमारे इतिहास में दर्ज नायकों की भूमिका से प्रश्न तो किया ही जाएगा, जब हिंदी में विभिन्न भाषा, बोली और लिपियों की उपस्थिति में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाई, उन्हें संगठित किया, तो फिर इसे आज भी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बना सके।
राजभाषा तो दूर जिन प्रदेशों की बोलियां यानी छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, अवधी, भोजपुरी ,झाडीपट्टी आदि ने अपना समर्थन देकर इसे राष्ट्र भाषा स्वीकार किया था ,वे भी अपनी भाषा के अस्तित्व के लिए लड़ने को मैदान में है इसका कारण भाषा के प्रति रुझान नहीं बल्कि राजनैतिक उद्योग में नेता का मतदाताओं के ह्रदय में स्पंदन का एक नया झोंका देकर, 'मम बोली, मम भाषा, मम प्रदेश' की भावना के सहारे अपना उल्लू साधना है। अगर इसे गहराई से खंगालू तो, सोचता हूं भारतीय आवाम एक प्रत्यंचा पर कसा हुआ तीर तो है, परंतु वह ना तो कमान से छूटता है और ना ही किसी अन्य भाषियों को भेदता है।
याने एक दिशाहीन निष्क्रिय कौम जो भेड़ों का समूह है, जिसे विश्व का अर्थ तंत्र अपने लाभ हानि के मुताबिक हांकता है। समझना होगा।
इतनी निराशा भी नहीं है। कुछ लोग हैं जो भारतीयों की गुलामी की जंजीरों के पुनः बढ़ते प्रभाव से चैतन्य हैं और सक्रिय भी हैं। इसमें बुद्धिजीवियों का संगठन, हिंदी साहित्य सम्मेलन के साथ-साथ, राष्ट्रभाषा प्रचार प्रसार के संगठन अपने अपने क्षेत्र में तो कार्य कर ही रहे हैं। हिंदी प्रदेशों में हिंदी भाषा लिपि का अलख जगाए हुए हैं।
इन संगठनों में जो बात खटकती है या हिंदी को विवादास्पद बनाती है, वह इसमें विचारधाराओं की प्रतिस्पर्धा है, फिर चाहे वह प्रगतिशील, प्रतिगामी, समाजवादी, सामंतवादी, राष्ट्रवादी ही क्यों ना हो, जिसने इन संगठनों में कार्य करने वाले स्वार्थी रचनाकारों को अहमियत तो दिलवाई परंतु हिंदी के फंदे को कस गला घोंटनें का एक अस्वीकार्य प्रयत्न सतत् किया। इन संगठनों ने एक महत्वपूर्ण कार्य भी किया ,उसने किसान आंदोलन, असंगठित मजदूर आंदोलन, महिलाओं की आवाज बन, उन्हें संगठित किया और उनके जीवन व कार्यशैली में सुधार भी लाया ।इसे दूसरे रूप में समझना है तो यह कह सकता हूं हिंदी में सृजनकर्मी, उपभोक्ता, उद्योजक और बाजार के अंतर्गत विचलन को एक दिशा देकर तार्किक रूप से संपूर्ण द्वंद्व का नया कैनवास दिया।
जिसने सरकारों से अपने हक, मानवता के प्रति दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन लाया की भाषाएं इस संघर्ष की आवाज बनी, तो वहां हिंदी भला अछूती कैसे रह सकती थी। वह आज विश्व की के शीर्ष पर बैठ वैश्विक सहानुभूति और क्रांति की प्रस्फुटित होती ज्वाला जला, स्व की भावना ,स्वभाषा की निजी आवश्यकता की प्रवृत्ति का जन्म, हिंदी के लेखकों का एक विशाल कुनबा तैयार कर सकी। जिन्होंने विश्व की भाषा के साथ, भारतीय भाषाओं को अनुवाद के सहारे एक दूसरे के करीब तो ला ही दिया।
हिंदी की अनिवार्यता को भी समझाया। यही कारण है दक्षिण भारत से पूर्वी भारत में भी हिंदी बोली पढ़ी और समझी जाने लगी है। इसका श्रेय पर्यटन, खानपान के बढ़ते बाजार और नौकरी के लिए बदलते परिवेश के खुले वैश्विक बाजार की अहमिय।त को समझना होगा, जिसे नकारा भी नहीं जा सकता।
जब तक हम यह कहने में गर्व महसूस करेंगे कि हिंदी विदेशों में लगभग 100 देशों में अपने पंख पसार चुकी है, और घर में अंग्रेजी के स्कूल पर स्कूल खोलते जाएंगे। तो यह भी स्वीकार कर लीजिए एक दिन आती नई पीढ़ी भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी नहीं ,अंग्रेजी ही होगी। यह आक्षेप करने वाले समीक्षकों का मत है।
आज वह दिन भी आ गया जब हम हिंदी को बढ़ावा देने वाले संगठनों, कार्यालयों, सम्मेलनों, बुद्धिजीवियों व रचनाकारों से प्रश्न करें कि क्या हिंदी, लिपि विहीन मात्र बोलचाल का स्वरूप लेकर या नारों में बस अपनी इति समझ सही दिशा में विकसित हो रही है? क्या समसामयिक साहित्य भारत मुक्ति आंदोलन के बाद संघीय ढांचे के पुनर्गठन की दिशा में सांप्रदायिकता, आंचलिक भाषा की आवाज से परे, कहीं राष्ट्रवाद की ढकोसली चालों में, मोहरा तो नहीं बन रहा ? क्या हमें बोलियों को अहमियत ना देकर , उनके साहित्य के प्रचार प्रसार को नकार, हिंदी का वर्चस्व रखने की नीति की परिणीति तो नहीं, हिंदी का विरोध, हिंदी की अवहेलना।
विचार करना ही होगा ।हमें उत्तर भारत में दक्षिण, उत्तर पूर्व की बोलियों की अनिवार्यता पर भी विचार करना होगा। ताकि अपनत्व और अन्य भाषा के बोलने वालों को हिंदी उच्चारण करने में जो जीव्हा का प्रयोग तकलीफ देता है, उस कष्ट को भी समझें। इसमें एक और भी कारण है, हिंदी के शिक्षकों व वरिष्ठ साहित्यकारों का हिंदी के क्रिया व्याकरण को लेकर उदारवादी ना होना। इस खेमे को लेकर दिनकर ने जो रेखांकित किया था कि, 'हिंदी साहित्य में पुराने और नए स्कूल के प्रतिनिधियों के बीच संघर्ष मुखरित हो चुका है।' वह संघर्ष आज भी जारी है।
एक काल था 1930 के आसपास साहित्य सम्मेलन में, गणेश शंकर विद्यार्थी और रामवृक्ष बेनीपुरी अध्यक्ष और प्रचार मंत्री चुने जाते हैं और उधर राजनीति में जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाते हैं, तब वे सभी युवा थे। याने राजनीति और साहित्य पर सनातन पंथी या कट्टर हिंदी मानसिकता वालों को हटाकर युवा नई सोच का आगमन होता है, तो आवाम में अति उत्साह का संचार होता है और भारत स्वतंत्र बहुत जल्दी हो जाता है। संघीय राष्ट्र का निर्माण होता है।
वहीं अफसोस, हिंदी इस ढांचे में स्वार्थ की बलि चढ़ जाती है। हमें समझना होगा हिंदी का विकास आज भी 75 साल की स्वतंत्रता के बाद भारत में और रोजगार की तलाश में भारत से बाहर गए प्रवासी भारतीयों में क्यों कर नहीं हो रहा है? इसका कारण है साहित्यिक गहराई को प्रधानता ना देकर हम वृद्ध साहित्यकों को आज भी आसन प्रदान कर रहे हैं।
आज तो हिंदी का विकास भी अवरुद्ध हो रहा है, क्योंकि हम स्थापित भारतीय संस्कृति के मानकों को राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से पुनर्लेखन करने का, याने झूठ को स्थापित करने का एक भ्रामक जाल ही बुन रहे हैं। जो आने वाली पीढ़ी के समीक्षकों में द्वंद्व का प्रयोजन बनेगी और मिथ्या धरातल की अनोखी नींव रखेगी। जहां भारत का इतिहास भले सबसे पुरानी संस्कृति का तमगा पा ले, परंतु मन वचन से ह्रदय में स्पंदन नहीं करेगा और सच की तलाश में अंग्रेजी साहित्य के स्थापित साहित्य मानकों व सत्य के करीब पाकर उसे ही अपना ताज पहनाएगा।
इस परिवर्तन में हिंदी को लेकर समाचार पत्र माध्यम प्रमुख से शिकायत भी है, कि वे अब हिंदी के साहित्य को प्रधानता ही नहीं देते, बल्कि उसकी उसकी जगह, रोमांच, मनोरंजन को स्वीकार कर परोसते हैं, जो झूठ की वैशाखी पर पहले ही खड़ा है।
क्या पाठक, छात्र को सर्वगुण संपन्न मान उसे कुछ भी परोस देते हैं और कहते हैं, वे स्वयं समीक्षक बने, निर्धारण करें क्या उसे प्राप्त करना है और क्या नहीं ? बिल्कुल वैसे जैसे अश्लीलता मनोरंजन के नाम से परोस कोई निर्माता बेशर्मी से कहता है ,प्रेक्षक स्वयं निर्धारित करें उसे वह देखना है या नहीं। हिंदी भी एक वृद्ध पीढ़ियों के हाथ में आज भी रक्त रंजित है ।ऐसे में नई सोच के नए साहित्यकारों को विद्यार्थी , बेनीपुरी बन खड़े होना ही होगा।
हिंदी को कनिष्ठ व अलंकारिक पोशाक को त्याग हिंदुस्तान के आम जनता के लिए लिखी भाषा ही स्वीकार होगी। जिसे एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी सपाट, बिना यमक का, रूपक का, मंथन किये समझ जाएगा।
इस सच को हमें स्वीकार करना होगा कि हमारा देश 60% गांव में रहता है, 25% कम पढ़े-लिखे मजदूर हैं। वे सब सुंदर या खूबसूरत नहीं दिखते वे अधिकतर खूबसूरती के मोहक काल्पनिक चित्रों से परे, झुकी कमर वाले गंदे मैले कपड़ों को धारण कर काम करने वाले हैं ,जिन्हें हम किसान एवं मजदूर कहते हैं। जिनको ठोकर लगने पर या चोट लगने पर अपनी क्षेत्रीय बोली में कराहने का उच्चारण करने की आदत है ।हमें यथार्थ को स्वीकार कर, काल्पनिक असत्य की सृष्टि को सिरे से त्यागना होगा। इसके लिए हमें संकुचित दृष्टिकोण को साहित्य पर तो हावी नहीं होने देना होगा।
आज संकीर्ण वर्ण व्यवस्था, संस्कृति के अंधविश्वास भरे प्रपंच से भरा समाज उनके पालन में इतना मशगूल है कि उसे हिंदी की चिंता भले क्यों कर होगी। वह तो आज और भी संकीर्ण दौर में से मानव होने के भान को त्याग, हिंदू होने या जाति को प्रधानता देने वाला बन गया है। भले वह किसी भी भाषा का बुद्धिजीवी क्यों ना हो इस राष्ट्रीय षड्यंत्र से देश में ही हिंदी हासिए पर जा रही है।
हिंदी भाषा में विकास की संभावनाएं बहुत हैं। बस कमी है तो इच्छाशक्ति की। वह भी सरकारों की। हिंदी भाषा राजभाषा के रूप में भारत में और संपर्क भाषा के रूप में विश्व में जुड़ती जा रही है।
जब दो भाषा या बोलियों का आपस में मिलन होता है, तो भाषा वैज्ञानिक इसे 'प्रस्थान बिंदु' के रूप में रेखांकित करते हैं। जो गतिशील है और गतिशीलता ही इसके विकास और स्वीकार्यता के रूप में प्रतिस्थापित हो रही है। इसे भाषीय विनिमय के रूप में देखा जाता है। याने जब हम कहीं कुछ क्रय करते हैं, नबदले में, विनिमय में दूसरा कुछ प्राप्त भी करते हैं।
ऐसे ही हिंदी विनिमम में कई भाषाओं के कई शब्द लेकर समृद्ध हो रही है, जो स्वयं तो विकसित हो रही है, साथ ही अन्य भाषा बोलियों का मार्ग प्रशस्त करती है। बस स्वीकार्यता के लिए जैसे पहले भी कह चुका हूं, हिंदी की क्रिया व्याकरण में लचीलापन जरूरी है। इस नए भारतीय समीकरण से हिंदी की शब्द संपदा के साथ स्वीकृति का विशाल समुदाय बनेगा और बोलचाल का स्वरूप भी बदलेगा। वैसे भी हिंदी या हिंदुस्तानी ने किसी बोली को अकेले आत्मसात नहीं किया है। मुंबई की हिंदी, हैदराबाद की हिंदी, उड़िया की हिंदी, कनाडा की हिंदी, सूरीनाम की हिंदी में अपनी एक विशेषता है, जो वहां के अंचल में अपना अस्तित्व और आकार लेकर अन्य प्रदेशों में मुस्कुराहट का संचार करती है। भाषा वैज्ञानिक को हिंदी के इस संसर्ग निर्मित स्वरूप को स्वीकार कर व्याकरणिक परिवर्तन को स्वीकार करना ही होगा। आखिर हिंदी बोलचाल की भाषा बन ही तो हमारे सामने खड़ी है।
हिंदी स्वयं भी आवागमन का रास्ता अपना, एक भारतीय शास्त्र के रूप में स्वभाविक रूप से, अदृश्य रूप से, तर्क पूर्ण रूप से तथ्य पूर्ण रूप से आधारों का सहारा लेकर असंख्य शब्द के सहारे वाक्यों लोकोक्तियों, मुहावरों में, प्रयोगात्मक रूप से, सैद्धांतिक विचार बन प्रवेश कर, तकनीकी, व्यवहारिक, रोजगार उन्मुख बन अपना आलम्ब मजबूत कर रही है। जरूरत है संतुष्टि की। हिंदी की सबसे ताकत उसका उच्चारण, उसकी लिपि, और मानकीकरण का वह धरातल है जहां बोलने ,सुनने और समझने की क्रिया में एकीकरण हो, सरल स्पष्ट व तार्किकता का स्पंदन होता है।
ज्ञयह सच स्वीकार करने में हमें अपने आप को छोटा नहीं समझना होगा कि, भारतीय भाषाएं जैसे ब्रह्मी लिपि की देन हैं, वैसे ही हिंदी वर्णमाला भी वहीं से उद्भव होती है। विशेषता यह है कि हिंदी ने लिपि स्वरूप में बोलने के अंदाज, लबों के, दातों के, तालु के, हृदय के ठोक प्रयोग कर अपने शब्दों का आकार व प्रयोग सरल बनाया है।
हिंदी के विकास की प्रक्रिया एक लंबी यात्रा से गुजर आज वैज्ञानिक स्वीकार्यता भी प्राप्त कर चुकी है। बस हमें हिंदी को अपनाने की हीनता की ग्रंथि से निजात पाना ही होगा, और अपनी भाषा के घमंड का बीज पाल उस पर अभिमान करना होगा। हमें 'भारतेंदु' के नवजागरण के बीज मंत्र को अपना, 'निज भाषा उन्नति आहै, सब उन्नति को मूल' स्वीकार कर हिंदी को वैचारिक धरातल पर मजबूती से खड़ा कर, समालोचनाओं, तर्क के सहारे वैचारिक उत्तेजना को पल्लवित कर अश्लीलता ,अलगाव की भाषा को अस्वीकार कर सांस्कृतिक लबादा ओढ़ाना ही होगा। जो नवजागरण के साथ हिंदी को सरताज बनाएगा।
आज बुनियादी सवाल स्वत्व की रक्षा और हिंदी के क्षेत्र का विकास करने की है।
इसलिए हमें बोलने, लिखने और अभिव्यक्त करने की आजादी हो, तो निश्चित ही हमें हिंदी को बोलने वाले देशों की गणना नहीं करनी होगी। वह स्वयं तूफान के वेग पर सवार धीरे-धीरे अंचल की मंद मंद समीर पर अपनी तरंगे, स्वर लहरी में गुनगुनाती मुस्कुराती कह उठेगी, शायर लुधियानवी की वह बात - वो सुबह हमीं से आएगी, जब धरती करवट बदलेगी, जब कैदी कैद से छूटेंगे, जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब जुल्म के बंधन टूटेंगे, उस सुबह को हम ही लाएंगे, वह सुबह हमीं से आएगी वह सुबह हमीं से आएगी।
वहीं हमारा मन भी प्रेरित होकर लिख उठता है एकांत में बस दो शब्द ही, यूं ही- युग युग से प्रताड़ित मजदूर ,तुम कहां हो, शोषित, पीड़ित वर्ग इशारा करो, कहां हो, आओ सामने बैठो, शब्दों को जरा स्पर्श करुं, तुम हिंदी में कराहोगे, मैं तुम्हारा आलिंगन धरूं।।
- नरेंद्र परिहार
उत्कर्ष अनुराधा, सिविल लाइंस, नागपुर (महाराष्ट्र)
nksparihar@gmail.com