रिश्ते...
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पर कितनी मजबूरी होती है,
कभी, कभी,
रिश्तों का बोझ ढोने की।
वे जानते है, और हम भी,
कि असहमत है, हम,
एक दूसरे के विचारों, स्वभावों,
और भावनाओं से,
फिर भी खिंचे चले जाते है,
अक्सर अच्छे, बुरे प्रसंगों में,
एक दूसरे के सुख, दुःख में,
संवेदनाएं प्रगट करने,
बधाईयां देने, और जीते है,
बोझ उठाते हैं रिश्तों का ।
क्योंकि, रिश्ते तो रिश्ते होते हैं।
उनमें खरोंच आ सकती है,
गठाने बंथ सकती है,
दरारें भी पड़ सकती है,
पर रिश्ते कभी टूटते नहीं,
क्योंकि रिश्ते बंधन होते
रक्त के, खून के,
शरीर मे रिसते रहते हैं।
- प्रभा मेहता
नागपुर (महाराष्ट्र)