सियासी रंग...
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वक्त ही तो है साहिब, पलटता ज़रूर है।
ये सियासती रंग है ज़रा संभल कर चलना,
मसलहतों के मुताबिक़ बदलता ज़रूर है।
वादे तो बहुत किए, अब भरोसा नहीं रहा,
जुबान ही तो है हुज़ूर, फिसलना ज़रूर है।
तकरीरें भी बहुत सुनी, भाईयो और बहनों,
जुमला ही तो है जनाब, मुकरना ज़रूर है।
नज़रबंदी का खेल चला बहुत रोज़,
तिलिस्म, जादूगर का टूटता जरूर है।
गुबार ही गुबार है चार–सू तो क्या,
फना दहशतगर्दी, होना ज़रूर है।
गर्दिशों में है जो आज सय्यारे अपने ‘अदा’,
मसीहा दर्दमंदो का, एक रोज़ आना ज़रूर है।
- डॉ. तौक़ीर फातमा ‘अदा’
कटनी (मध्यप्रदेश)