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रिश्तों को निभाने के लिए समझौता बहुत जरूरी : डॉ. शहाबुद्दीन शेख


           
नागपुर/पुणे। भारतीय संस्कृति में रिश्तों का अपना महत्व है। रिश्ते निभाना हमारा परम कर्तव्य हैं। फिर भी किसी भी रिश्ते को अबाधित रखने के लिए समझौता बहुत जरूरी है। इस आशय का प्रतिपादन विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने किया। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में 'किसी भी रिश्ते में समझौता क्यों जरूरी ?' इस विषय पर आयोजित 125 वीं (21) सोमवार, 15 मई को राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी में वे  अपना अध्यक्षीय उद्बोधन दे रहे थे। 

डॉ. शहाबुद्दीन शेख ने आगे कहा कि रिश्ते निभाने में समझौते की आवश्यकता यह वर्तमान समय की मांग है। बहुत पहले के समय इसकी जरूरत नहीं थी। मुझे याद है मेरे दादा जी का संयुक्त परिवार था, क्योंकि मेरे दादा जी पापाभाई शेख और उनके भाई दादाभाई शेख, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के पारनेर तहसील से संलग्नित पिंपलगांव तुर्क इस छोटे से गाँव में आजीवन संयुक्त परिवार में रहे। दोनों भाई आपस में बहुत कम बात करते थे लेकिन उन दोनों में अव्यक्त आपसी प्रेम, विश्वास, सद्भाव, आदर, सम्मान व त्याग की भावना स्पष्ट थी। बड़े भाई जब भोजन के लिए बैठते थे तो पूछते थे कि छोटे ने खाना खा लिया क्या ? ऐसी  स्थति में वहां समझौते का कोई प्रश्न ही नहीं था। 

मेरे दादाजी पापाभाई शेख के बाद मेरे पिताजी मरहूम हाजी नियाज मुहम्मद शेख ने इस परंपरा को बखूबी निभाया। उन्होनें अपने चचेरे भाई मिट्ठूभाई शेख और बालम शेख के साथ वही आत्मीयता दर्शायी। बाद की पीढ़ियाँ नौकरी पेशे के कारण विभिन्न स्थानों पर रहने लगे। हमारी तीसरी पीढ़ी के मैं शहाबुद्दीन शेख और मेरा छोटा भाई राज मुहम्मद निरंतर अपने गाँव से दूर रहे। चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधि मेरा पुत्र अलीम शेख है और पांचवी पीढ़ी को मेरा पोता अमान के रूप में हम देख रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी और मेरे दादाजी के भाई के परिवार के सभी पीढ़ी प्रतिनिधि हमारे पैतृक गाँव में शादी-ब्याह, गाँव के वली तुर्कशाह बाबा का उर्स (मेला) आदि के अवसर पर तथा सुख-दुख के प्रसंगों पर हम सदा संयुक्त परिवार के रूप में एकत्रित होते हैं। 

आज तक हमारे संयुक्त परिवार में कभी समझौते की स्थिति पैदा नहीं हुई। क्योंकि आपसी प्रेम, निस्वार्थ भाव, पारस्परिक सामंजस्य, समर्पण व सहयोग परिवार में निरंतर  बना रहा, परंतु वर्तमान समय में अधिकांश परिवारों में नासमझदारी, अहम, गलतफहमी, अविश्वास, स्वार्थ, संदेह जैसी अनावश्यक बातें रिश्तों को समाप्त करने में तुली रहती हैं। अतः रिश्ते को बनाए रखने में समझौते का मार्ग सर्वोत्तम है। 

गोष्ठी की मुख्य वक्ता श्रीमती रजनी प्रभा, मुजफ्फरपुर, बिहार ने कहा कि आज लोग बाह्य आडंबर में इतना अधिक उलझ गए हैं कि उनकी आंतरिक जड़ें कमजोर या खोखली होती जा रही है। हर कोई समझौते की अपेक्षा अन्य मार्ग का अवलंब करता है। किसी भी रिश्ते में दोनों पक्षों की सोच एक जैसी नहीं हो सकती परिणामत: रिश्ते में कड़वाहट बढ़ते-बढ़ते रिश्ते टूट सकते हैं। अतः किसी भी रिश्ते में समझौते से उस रिश्ते की नींव और भी मजबूत होती है। विश्वास के बल पर रिश्ता अटूट बन जाता है। सही समझौता अर्थात एडजस्टमेंट जीवन को सुखी, संपन्न और सार्थक बनाता है।

गोष्ठी की संचालिका तथा संस्थान की छत्तीसगढ़ राज्य प्रभारी व हिंदी सांसद डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने संचालन करते हुए कहा कि हमारा जीवन ही रिश्तों  से भरा पूरा है। अनेक प्रकार के रिश्ते निभाते हुए हम जीवन जीते हैं। माँ-बेटा, पिता-पुत्र, भाई-भाई, भाई-बहन, बहन-बहन, पति-पत्नी,सास-बहु जैसे अनेक रिश्ते हो या हृदय के निकट का कोई विशेष रिश्ता हो, इन सभी रिश्तों को आपस में निभाने के लिए समझौता जैसे सुगम मार्ग का कोई विकल्प नहीं है। 

संस्थान के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश ने अपने प्रास्ताविक में रिश्ते की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा कि रिश्ते को ढोने की अपेक्षा उसे समझौते के साथ निभाए। गोष्ठी का शुभारंभ डॉ. संगीता पाल, कच्छ, गुजरात की सरस्वती वंदना से हुआ। डॉ. सरस्वती वर्मा, महासमुंद, छत्तीसगढ़ ने स्वागत भाषण दिया। 

डॉ. आरती बोरकर, छत्तीसगढ़ ने आभार ज्ञापन किया। इस गोष्ठी में डॉ प्रतिभा येरेकार, नांदेड, महाराष्ट्र; लक्ष्मीकांत वैष्णव, शक्ति, छत्तीसगढ़, डॉ. आरती मेहरा, इंदौर; प्रा. मधु भंभाणी, नागपुर आदि की गरिमामय उपस्थिति रही।
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