डाॅ. गहरवार ने 'धीरज का फल मीठा और कर्म ही पूजा' को किया चरित्रार्थ
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नागपुर/बालाघाट। शासकीय जटाशंकर त्रिवेदी स्नातकोत्तर महाविद्यालय बालाघाट द्वारा राष्ट्रीय सेवा योजना का केम्प ग्राम पंचायत धनसुवा में 27 अक्टूबर 1980 को आयोजित किया गया था। जिसमें आचार्य डाॅ. वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' केम्प लीडर की हैसियत से पहुंचे थे।
जहाँ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में गोंसाई मंदिर धनसुवा को देखा और उसकी साफ-सफाई करते हुए उसे समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाया। देखते-देखते जन समूहों के बीच गोंसाई मंदिर धनसुवा चर्चा का विषय बन गया और शनैः-शनैः शासन-प्रशासन का ध्यानाकर्षण करवाते हुए 1998 को प्राक्कलन केन्द्र और राज्य सरकार कलेक्टर बालाघाट के माध्यम से सम्प्रेषित करवाया।
2019 में राज्य सरकार के अधीनस्थ हो गया। निरन्तर कलेक्टर बालाघाट के माध्यम से केन्द्र और राज्य सरकार को स्मरण पत्र सम्प्रेषित करवाते रहे, जिसका प्रतिफल यह रहा कि गोंसाई मंदिर धनसुवा के 42.2 लाख स्वीकृत हो गये। ज्ञात हो कि गोंसाई मंदिर धनसुवा के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के अन्य जिलों जबलपुर, शहडोल, मंडला के पुरातात्विक स्थलों की महत्ता को देखते राशियां स्वीकृत हुई है।
आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' ने 1980 से 43 वर्षों का एक लम्बा सफर, आज यादगार बन गया। जो भावी पीढ़ियों के लिए स्थायित्व स्तंभ प्रदान करने, नये परिदृश्य में पर्यटकों के लिए पिरोया है। धीरज का फल मीठा होता है, कर्म ही पूजा है, यह चरित्रार्थ कर ही दिया है।
आचार्य डाॅ. वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' ने इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान संग्रहालय बालाघाट के मोनो के रुप में गोंसाई मंदिर धनसुवा का फोटो शामिल किया है। यह मंदिर धनसुवा 10 वीं शती ई में कलचुरी शासन काल में बनाया गया था, जो गोंसाई मंदिर के नाम से जाना जाता है, जहाँ विश्व में अपनी पहचान बनाने में अनुकरणीय भूमिकाएं निभाई हैं।